Friday, June 2, 2017

रिश्ते बनते हैं, बड़े धीरे से - अभिषेक त्रिपाठी


(Review of Music of Mirzya with Discussion on Gulzar and Arushi NGO Bhopal)

कौन मिलावे मोहे जोगिया से, जोगिया बिन रहा न जाय।

कबीर को आशा भांेसले की आवाज़ में सुनना अलग रस है। इसमें पण्डित रघुनाथ सेठ का खालिस हिन्दुस्तानी संगीत है। जोगिया की तलाश और आस जन्मों से रूहों को बेचैन रखती आयी है। जो डूबा वो पार। कहीं भी डूबे इस तलाश में,  वहीं पहुँचना है हर डूबने वाले को। हाल ही में प्रख़्यात गीतकार गुलज़ार भोपाल पहुँचे, आरूषि संस्था के जरिये। पहुँचे उन बच्चों से मिलने, जो बस थोड़े से अलग हैं और जिनमें वही जोगिया रहता है। वास्तव में गुलज़ार साहब की उन बच्चों के साथ तस्वीरें देखकर मन बोला- जोगिया से जोगिया मिले। गुलज़ार कहतें हैं-

“रूह को रूह से जुड़ने दे। इश्क की ख़ुशबू उड़ने दे”

यह उनमें से एक गीत का हिस्सा है जो अभी हाल ही में आने वाली फ़िल्म ‘मिर्ज़्या’ के लिये गुलज़ार ने लिखे हैं। लिखे क्या हैं, एक टोकरा है ख़ुशबुओं का। रख बस लीजिये अपने पास। जब चाहे जितनी चाहे उतनी ख़ुशबुएँ। वही सादगी, वही ताज़गी जो 1963 में बंदिनी के गीत ‘मोरा गोरा अंग लइले, मोहे श्याम रंग दइदे’ में थी। पचास से ज़्यादा साल हुये इस गीत को। इतन लम्बा अरसा, वही नयापन, वही मज़ा- कोई जोगी है उनके भीतर भी। उसके तप की ऊष्मा है जो ख़त्म नहीं होती कभी। फ़िल्म ‘मिर्ज़्या’ के सारे गीत इसका जीता जागता उदाहरण है। एक गीत देखिये-

“निदरा में किसने याद कियो रे, जगाये सारी रैना रे,
 पिया जगावे, जिया जगावे, दिया जगावे रे,
 आवे रे हिचकी, आवे रे हिचकी...............”

लोक से अच्छा ख़ासा जुड़ाव है यहाँ। साथ ही साथ सादगी से अपनी बड़ी से बड़ी बात कहने का माद्दा। एक और गीत का हिस्सा-

“आसमाँ खोल के देखने दो,
उस तरफ़ शायद एक और भी हो।”

पूरा एल्बम ही कमाल लिखा गया है। संगीत में भी बहुत ही अच्छे प्रयोग शंकर एहसान लाॅय ने किये हैं। गुलज़ार के गीतों को संगीतबद्ध करना कोई हँसी खेल नहीं है। एक तरफ़ लोक से जुड़ा और दूसरी तरफ़ बिल्कुल प्रयोगधर्मी गीत लेखन वैसे ही संजीदा और सामथ्र्यवान संगीत निर्देशक की माँग करता है। डाॅ0 हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक शब्द को जनपद या ग्राम से न लेकर नगरों व गाँवों में फैली जनता से लिया है जो सरल और अकृत्रिम जीवन जीती है। लोक का प्रभाव ऐसे ही नही आ जाता किसी भी कला रूप के भीतर। बहुत गहरे उतरकर लोक में जीना, रच-बस जाना और अपनी रचना प्रक्रिया में उसे आत्मसात् कर लेना एक बड़े संवेदनशील अनुभव के बाद ही हो पाता है। गुलज़ार, शंकर महादेवन् और उनके साथ मामे खान, दलेर मेहदी और मिर्ज़्या के संगीत की पूरी टीम ने एक यात्रा पूरी की है। लोक से जुड़ाव के लिये लोक शैली की धुनें रची गयी हैं। लोक गायकों दलेर मेंहदी और मामे खान ने भी अपने झण्डे गाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मामे खान, राजस्थान के माँगनियारों की गायकी के आज के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर कहे जा सकते हैं।
एक विदाई गीत है-

‘डोली रे डोली चली
पिया की मुँहबोली चली’

पूरा गीत फ्यूज़न की एक बेहतरीन मिसाल है। यह फ्यूज़न भारतीय लोक संगीत के साथ जाज़ जैसी पाश्चात्य विधा का है। लोक जैसी धुन और संजीदा गायकी के साथ हार्मोनी अपने बेहतरीन रंग में आयी है। पूरे एल्बम के गानों खास तौर पर डोली रे डोली, आवे रे हिचकी, कागा में काॅर्ड प्रोग्रेसन का ग़ज़ब इस्तेमाल है। ग़ज़ब इस्तेमाल इसलिये कह रहा हूँ कि इनमें सामान्य से ज़रा अलग हटके साउण्ड आता है हार्मोनी का। तमाम फ़िल्मी ज़रूरतों के अलावा भी पूरे एल्बम में एक ख़ास किस्म का देसीपन एक सुख़द अहसास देता है। ये देसीपन गीतों में, गायकी में, धुनों में, आर्केस्ट्रा में, ट्रीटमेन्ट में, हर जगह बखूबी बनाये रखा गया है। वाकई कई दिनों बाद कुछ नया और बहुत अच्छा मिला सुनने के लिये।

गुलज़ार साहब आरुषि से होकर लौट गये रिश्तों की एक नई परिभाषा गढ़ कर, पर जैसे उनका दिल पड़ोसी है मेरा। मिलना-जुलना कम होता है पर वह रहता हमेशा आस-पास ही है। उनसे, उनकी कविता से हमारा एक ग़हरा रिश्ता है जो दिन-ब-दिन बनता जाता है। कच्चे लम्हे की तरह, शाख पर पकता जाता है। उम्मीद नये रिश्तों की कभी खत्म नहीं होती, रिश्ते बनते हैं बड़े धीरे से।

-अभिषेक त्रिपाठी


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