Tuesday, April 14, 2015

भारतेन्दु की रंगदृष्टि - डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी (An Article by Dr. Sevaram Tripathi on Bhartendu Harishchandra)

भारतेन्दु की रंगदृष्टि- डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी
(An Article by Dr. Sevaram Tripathi on Bhartendu Harishchandra- Bhartendu ki Rangdrishti)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पर विचार करते हुये हमें उनके युग की स्थितियों, जटिलताओं, अन्तर्विरोधों एवं संकटों को जानना-पहचानना आवश्यक है। वे सही मायने में अपने युग के निर्माता थे। डाॅ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय के शब्दों में ‘‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा का माध्यम अपनाकर साहित्य सृजन, सम्पादन, नाट्याभिनय और निबन्ध लेखन द्वारा देश में पुनर्जागरण (रिनेसा) शुरू किया। पुनर्जागरणकारी व्यक्तित्व अनिवार्यतः अनेकायामी अनेक क्षेत्रीय या बहुविषय स्पर्शक होता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति, जगह-जगह विधाओं और अन्य-अन्य प्रसुप्त चेतना परिसरो को जगाता है, नव चेतना का बीज वपन करता है और चिनगारियाँ छोड़ता है। ऐसा व्यक्ति मात्र विधा विशेष की दृष्टि से नहीं जांचा जा सकता क्योंकि वह एक पूरे युग चैतन्य का माध्यम या स्रोत बनता है। अतः वह युग प्रवर्तक होता है और अनेक विधाओं में नवीन प्रेरणा, नये विचार सूत्र, नये मूल्य पनपा देता है। भारतेन्दु ऐसे ही युग प्रवर्तक व्यक्ति थे। (आलोचना-79, पृष्ठ-51)
भारतेन्दु का रचनात्मक संघर्ष और कृती व्यक्तित्व मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा और हमारी सांस्कृतिक विरासत की पहचान का एक अत्यन्त समर्थ साक्ष्य है। उनकी संघर्षशीलता और जीवटता इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी हमारे लिये अभी भी ज़रूरी है और प्रासंगिक भी। उनकी रचनात्मक ऊर्जा, राष्ट्रवादिता, कला साधना और जीवन संघर्ष के कई आयाम है लेकिन उनकी केन्द्रीयता में सब तिरोहित हो गये हैं। डाॅ. राम विलास शर्मा ने उनका महत्व स्वीकारते हुये बहुत सही कहा है कि ‘‘साहित्य, पत्रकार-कला, देश सेवा-ये भारतेन्दु के लिये तीन अलग-अलग चीज़ें नहीं थी। उनका आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध था। भारतेन्दु शुद्ध कला के उपासक न थे। वह सोद्देश्य साहित्य के हामी थे इसलिये उनका व्यक्तित्व भी शुद्ध साहित्यकार का न होकर एक समाज सेवी कार्यकर्ता का था।’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृष्ठ-5, 6)
भारतेन्दु का समय काफी उथल-पुथल और आपाधापी का रहा है। स्वाधीनता आंदोलन की मशाल जल उठी थी। युगीन परिस्थितियों के अनुरूप अपनी सीमाओं के अंदर, कई अन्तर्विरोधों के चलते हुये भी जनजागरण की भावना, निरन्तर विकसित होती जा रही थी। भारतेन्दु की जिज्ञासु दृष्टि एवं सुचिन्तित तथा तार्किक बुद्धि ने न केवल गुलामी की अन्तःप्रकृति की पहचान की बल्कि संकीर्णताओं अंध विश्वासों, रूढि़यों और पाखण्डों पर व्यंग्य किया। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। ‘सब धन ठोयो जात विलायत उनके व्यंग्य में किसिम-किसिम की गूँजे-अनुगूँजे हैं जिनमें युग की पीड़ा और हाहाकार को अभिव्यक्त किया गया है। नये जमाने की मुकरी में वे लिखते हैं ‘‘भीतर-भाीतर सब रस चूसै। हँसि हँसि कै तन-मन-धन जूसे जाहिर बातन में अति तेज़। क्यों सखि सज्जन, नहिं अंग रेज ‘भारत दुर्दशा’ नाटक में भारत दुर्दैव से कहलाया गया है-
भरी बुलाऊँ देश उजाड़ू महंगा करकै अन्न
सबके ऊपर टिकश लगाऊँ धन है मुझको, धन्न
मुझको तुम सहज न जानो जी/मुझे इक राक्षस मानो जी।
देश की चिन्ता, पीड़ा और उसके खि़लाफ़ उठ खड़े होने की प्रबल आकांक्षा उनके कृतित्व का ज़रूरी उपादान है। उनके लेखे राष्ट्रीय आंदोलन भाषा आंदोलन आंदोलन, साहित्यिक, सांस्कृतिक आंदोलन, सामाजिक आंदोलन मात्र शगल नहीं थे बल्कि जीवन-मरण के सवाल थे। श्री बाल मुकुंद गुप्त ने उनके लेखन की तेज, तीखा और बेधड़क लेखन कहा है। भारतेन्दु पर विचार करते हुये मुझे अक्सर कबीर की याद आती है। उनकी भाषा और व्यंग्य की प्रकृति तथा डंके की चोट बात कहने के सिलसिले में। जैसे-कबीर कहते हैं - सुखिया सब संसार है। खावै अरु सोवे। दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवें। भारतेन्दु भी हमें इसी प्रकार संबोधित करते हैं - ‘‘आबहु सब मिलिकै रोबहु भारत भाई। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। वैसे हर जागरण के मूल में रुदन की प्रवृत्ति होती है। राम विलास शर्मा ने उन्हें हिन्दी नवजागरण और प्रगतिशील चेतना से जोड़ते हुये एक मार्के की बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। भारतेन्दु ने साहित्यिक हिन्दी को संवारा, साहित्य के साथ हिन्दी के नये आंदोलन को जन्म दिया, हिन्दी में राष्ट्रीय और जनवादी तत्वों को प्रतिष्ठित किया। (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृष्ठ 121)
मेरी समझ में भारतेन्दु का महत्व इस बात में भी है कि वे कोटे लिक्खाड़ भर नहीं थे। वे जनता के बीच गये। उनके सुख-दुख, उनकी आशाओं, आकांक्षाओं को उनकी समस्याओं को उन्होंने गहराई तक जानने- पहचानने का प्रयत्न किया और उनका निदान खोज़ने का उपक्रम भी किया। उन्होंने देखा कि समाज में कई प्रकार की विकट समस्यायें हैं जैसे निरक्षरता, ग़रीबी, रूढि़या, अंधविश्वास और अपने आपको न जान पाने का अहसास। इसलिये उन्होंने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानते हुये जन शिक्षण के रूप में भी इस्तेमाल किया। उनकी खूबी इस बात में भी परखी जा सकती है कि उन्होंने लोक प्रचलित कला माध्यमों, स्थानीय जन बोलियों और लोक प्रचलित विश्वासों का जीवन्त इस्तेमाल जनता की भलाई और बेहतरी के लिये किया।
उनकी रंग दृष्टि की पहचान इस रूप में की जा सकती है कि उन्होंने नाटक और दृश्य काव्य के बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। वे दृश्य काव्य को जीवन के लिए सबसे जीवन्त और उपयोगी माध्यम मानते हैं। उन्होंने स्वयं नाटकों में अभिनय करके उसकी शक्ति सीमा की पहचान और अर्थवत्ता की खोज की थी। उनका ‘‘नाटक अथवा दृश्य काव्य’’ नामक दीर्घ निबन्ध उनके अन्तर्जगत की बेचैनी को सूचित करता है। वे लिखते हैं - ‘‘नाटक लिखना आरम्भ करके जो लोग उद्देश्य वस्तु परम्परा से चमत्कारजनक और मधुर अतिवस्तु निर्वाचन करके भी स्वाभाविक सामग्री परिपोष के प्रति दृष्टिपात नहीं करते उनका नाटक, नाटकादि दृश्य काव्य लिखने का प्रयास व्यर्थ है क्योंकि नाटक आख्यायिका की भांति श्रव्य काव्य नहीं है।’’ वे आगे लिखते हैं - ‘‘नाटक में वाचालता की अपेक्षा मितभाषिता के साथ वाग्मिता का ही सम्यक आदर होता है। नाटक में प्रपंच रूप से किसी भाव को व्यक्त करने का नाम गौण उपाय है और कौशल विशेष द्वारा थोड़ी बात में गुरुतर भाव व्यक्त करने का नाम मुख्योपाय है। थोड़ी-सी बात में अधिक भाव की अवतारणा ही नाटक जीवन का महौषध है।’’
‘नाटक’ नामक इस प्रदीर्घ निबंध में उनका स्पष्ट मंतव्य है कि पुराने पड़ गये नियमों में परिवर्तन होना चाहिये। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है ‘‘मनुष्य की परिवर्तनशील वृत्तियों को ध्यान में रखकर नाटक लिखें।’’ क्रांति और नवजागरण, संस्कार और शोधन की सृष्टि से जनता के लिये वह नाटक को सबमें सशक्त माध्यम मानते थे। उनका नज़रिया यह भी था कि दृश्य काव्य और साक्षात्कार का माध्यम होने के कारण नाटक की प्रभावशीलता बढ़ जाती है। भारतेन्दु ने कई प्रकार के नाटक लिखे हैं। मौलिक, रूपांतरित और अनूदित। इन सभी में सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक विषयों में उनकी नई दृष्टि का न केवल पता चलता वरन् शिल्प और शैली की विविधता के भी दर्शन होते हैं। उनके मौलिक नाटकों में भारत जननी वैदिकी हिंसा-हिसा न भवति, प्रेम जोगिनी, विषस्या विषमौषधम् चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी और सती प्रताप प्रमुख है।
भारतेन्दु के मौलिक नाटकों में कथ्य की नवीनता विषयों की विविधता और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा के सूत्र हैं। विषय विषमौषधम में उन्होंने देशी राजाओं की दुर्दशा का चित्रण किया है। वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति में भारतेन्दु की धर्म के नाम पर की जाने वाली पशुबलि का विरोध करते हैं। भारत दुर्दशा में आयेगी। राज में भारत की खराब स्थिति एवं उसका निरन्तर दाम को चित्रित करते हैं। नील देवी में भारतीय नारी के आदर्श का प्रतिपादन करने का प्रयास करते हैं। अनेक नाटकों में सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति के साथ युग की समस्याओं को जनता तक पहुंचाने का उद्यम है। उनके नाटक जनकल्याण की भावना से लवरेज है। इन नाटकों में अतीत के गौरव का प्रतिपादन एवं राष्ट्रीय जागरण के बहुआयामी स्वर हैं।
हिन्दी में आचार्य भरत मुनि की तरह भारतेन्दु की प्रतिष्ठा है। उसकी मुख्य वजह यह है कि भारतेन्दु ने पहली बार बड़ी तीव्रता से नाटक की माध्यमगत, कलागत विशिष्टताओं की ओर ध्यान दिया और सामूहिक तौर पर योजनाबद्ध ढंग से नाटक और रंग कर्म को सक्रिय आंदोलन के रूप में पेश किया। उन्होंने नाटक और रंगमंच के परस्पर सम्बन्धों की अनिवार्यता पर जोर देते हुये रंग कर्म का शुभारम्भ और विस्तार किया। नाट्य मण्डलियों की स्थापना करके उन्होंने नाटक को लोकप्रियता प्रदान की। नाटक, रंगमंच और रंगकर्म के सामने जो अनेक मुकिश्ल सवाल थे मसलन नाट्य लेखन, अनुवाद, प्रदर्शन, राष्ट्रीय चेतना का विकास, लोक रूचि का परिष्कार, पारसी थियेटर के खिलाफ संघर्ष। ना ही नाट्य परम्परा का विकास, नाट्य शिल्प की नई योजना, नये रंगमंच की स्वतंत्र परम्परा को विकसित करने के लिये वे जीवनपर्यन्त संघर्षशील रहे। वे मानते थे कि ‘कला वास्तविक उन्नति का आधार है।’ उनकी मुख्य चिन्ता यह थी कि हिन्दी का कोई रंगमंच नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिये उन्होंने अनेक प्रयास किये।
मैं जब पढ़ता था तो हमारे पाठ्यक्रम में भारतेन्दुजी का एक प्रहसननुमा नाटक ‘अंधेर नगरी’ था। पढ़ने में यह अत्यन्त सहज है। इसकी जो चीज सबसे अधिक आकर्षित करती है वह है इसकी भाषा, इसकी जीवंतता, इसकी रवानगी और हास्य व्यंग्य का बेहद आत्मीय पुट। यह नाटक समय के साथ-साथ निरन्तर अर्थवान होता जा रहा है। एक सौ पच्चीस-तीस साल से ज्यादह इसको लिखे हुये हो गये लेकिन इसका कथ्य और खिलदड़ापन अभी भी नितान्त उपयोगी है। इसकी मार इसका व्यंग्य इसकी स्पिरिट आज भी नित नूतन है। इसकी जिस लहजे का इस्तेमाल हुआ और इसके विकास में जो खान की और ताजगी उसको कोई जवाब नहीं। उसकी अर्थ छवियां बेमिशाल है। ‘अंधेर नगरी’ पर विचार करते हुये डाॅ. राम विलास शर्मा का यह कथन बरबश याद आता है। कि ‘‘अंधेर नगरी अंग्रेजी राज का ही दूसरा नाम है लेकिन यह नाटक ‘‘अंग्रेजी राज्य की अंधेर गर्दी की आलोचना ही नहीं वह इस अंधेर गर्दी को खत्म करने के लिये भारतीय जनता की प्रबल इच्छा भी प्रकट करता है। इस तरह भारतेन्दु ने नाटकों को जनता का मनोरंजन करने के साथ उसका राजनीतिक शिक्षण करने का साधन भी बनाया। इसके गीत और हास्य भरे वाक्य लोगों की जवान पर चढ़ गये हैं और भारतेन्दु की प्रहसन कला यहां अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती हैं।’’
भारतेन्दु अकेले ऐसे नाटककार हैं जो नाटक, नाट्यकला, रंगमंच, नाट्य भाषा, नाट्य समीक्षा, रंगकर्म के प्रति चिन्तित और रंगमंच के प्रति निष्ठावान थे। रंगकर्म, रंगमंच नाटक के विविध कला रूपों और नाट्य समीक्षा-इन सभी आयामों के प्रति उनका ऐतिहासिक योगदान है। भारतेन्दु जी की नाट्य साधना की ही यह देन है कि आज का हमारा रंगमंच, रंगकर्म और रंग कौशल जनता से सीधे जुड़ा है। हालांकि हमने युग की परिस्थितियों के अनुकूल नये-नये प्रयोग किये हैं और इन प्रयोगों का सिलसिला अभी भी जारी हैं। भारतेन्दु दिन-ब-दिन प्रासंगिक अर्थवान और महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। अपने छोटे से जीवन में उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दी जनता की जो सेवा की है। साहित्य की विभिन्न विधाओं को खुलकर खेलने का अवसर दिया है। उनके इस ऐतिहासिक अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

BlogCatalog

Art & Artist Blogs - BlogCatalog Blog Directory