Sunday, October 16, 2011

जिस्म की बात नही थी, उनके दिल तक जाना था (In Memory of Jagjeet Singh)

लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है। यकीनन हर कलाकार को दिलों तक उतरने में वक्त तो लगता ही है, पर जिस तरह का मकाम जगजीत सिंह ने हमारे दिलों में बनाया है, उस मकाम से अलग होना हमारे लिए जल्दी नही संभव होगा। वो एक ऐसी आवाज़ थे जिससे गायकी की एक धारा चलती है जिसे हम लोग याॅनर बोलते है। भारत में ग़ज़ल गायकी को स्थापित करना ही उनकी महानता नही थी, महानता उनकी यह है कि उनके जीते जी लोगों ने उनको चाहा उनको फालो किया उनको कापी भी किया। आज अनगिनत लोग है, छोटे बड़े हर स्तर पर, जो उनको गाकर नाम और पैसे कमा रहे है।
जिस्म की बात नही थी उनके दिल तक जाना था..... यह बात यकीनन जगजीत सिंह के कलारूप पर लागू होती है। उनकी कला फ़ौरी तौर पर नही बल्कि रूहानी असर से काम करने वाली थी। जिसने भी उन्हे एक बार सुना, फिर सुनता ही रहा हमेशा। कितने ही लोगों को मैं जानता हूँ जो उन्हे सुनते सुनते श्रोता से अध्येता, विद्यार्थी, गायक, संगीतकार बनते चले गए। ये उनकी रूहानियत से भरी आवाज़ का ही असर था।
सत्तर बरस के जगजीत सिंह में जग जीत लेने का वो माद्दा था कि यदि सत्तर अरब की भी आबादी दुनिया की होती तो भी वो बस एक बार अपनी मख़मली, दानेदार, दमदार आवाज़ बिखेरते और हर सुनने वाला उनका हो जाता। हमारा सौभाग्य, जो हमने उन्हें सुना और उनके समय में दुनिया में रहे। उनकी आवाज़ का प्रोजेक्शन उनकी जो इमेज बनाता था, उनका व्यक्तित्व भी ऐन वैसा ही था। उनकी गाई ग़ज़लों की धुनों की तरह सरल लेकिन अर्थ पूर्ण, ग़ज़ल की बात की तरह गंभीर और असरकारी। सौम्य, आकर्षक, आभापूर्ण व्यक्तित्व। मैंने उन्हे देखा, उन्हे छुआ, उनसे बात भी की। कई बार।
दिल तक जाने के लिए लंबी दूरी तय करने की उनकी तैयारी मैंने उनकी ज़बानी सुनी थी। हुआ यूं था कि मैं मुम्बई में अपने संघर्ष के दिनों में उनके ही स्टूडियो संगीत में जाता था, वरिष्ठ संगीतकार, अरेंजर अमर हल्दीपुर साहब के पास। लगभग रोजाना। जगजीत जी कम ही आते थे। एक दिन मैं पहुंचा। वे सामने ही बैठे थे। तभी रिकार्डिंग रूम से निकलीं पाष्र्वगायिका मधुश्री, जिन्होनें बाद में फिल्म चिंटू जी के लिए मेरा संगीतबद्ध किया हुआ एक गाना भी गाया। उनसे चर्चा के दौरान मधुश्री ने उनसे कुछ ज्ञानार्जन की विनती की तो जगजीत जी सरलता से बोले- ‘‘मैं लगातार सुन रहा हूँ तुम्हारे गाने। बहुत अच्छा गा रही हो..... लोगों ने कुछ ही गाना सुना है अभी मेरा। लेकिन ये जो असर है वो ऐसे है कि मेरे पास जितना है उसे मैं रोज़ गाता हूँ अपने लिए। आज भी। मतलब अपना रियाज़। जितना भी सीखा है रियाज़ खूब करो उसका। शिद्दत से करो। दिल से करो। असर अपने आप होगा।’’ ये बात मैंने गांठ बांधकर रख ली है। हमेशा
 के लिए। तो ये बात थी! जो उनकी आवाज़ में असर पैदा करती है। लोग कहते है कि उनकी निजी जि़न्दगी के उतार चढ़ाव, त्रासदियों ने ये असर उनके अंदर पैदा किया। लेकिन असल बात तो यही है जो उन्होनें मधुश्री से कही। और अपने शुरूआती दिनों से ही वे खूब तैयार नज़र आते थे। हां ये बात मानी जा सकती है कि इन त्रासदियों ने उस असर को और धारदार बना दिया।
उनके गुजर जाने की बात, उनकों ब्रेन हैमरेज के बाद लगभग अवश्यम्भावी हो गई थी। पर फिर भी इस बात पर सहसा विश्वास करने को मन नही करता। वो हमेशा रहेगें हमारे बीच। हां एक बात जरूर है कि ऐसी शख्सियत अब आसानी से दोबारा नही आएगी। वो सिर्फ एक उम्दा गायक ही नही थे बल्कि एक बेहतरीन संगीत निर्देशक और अच्छे मार्गदर्शक
 भी थे। साथ ही साथ ग़ज़ल की गहरी समझ रखने वाले। उनकी गायी अधिकांश ग़ज़लें कंटेन्ट से भरपूर है। कितने ही कलाकारों को उन्होनें स्टेज व रिकार्डिंग्स में अवसर दिये हैं। अब वो आवाज़ खामोश  हो गई है जो कभी कहती थी- ‘‘फूलों की तरह लब खोल कभी, ख़ुशबू की ज़बां में बोल कभी। अल्फ़ाज़ परखता रहता है, आवाज़ हमारी तोल कभी।’’ पर जगजीत सिंह की आवाज़ को न तो तोला जा सकता है और ना ही उसका कोई मोल लगाया जा सकता है। वो अपनी तरह की अकेली आवाज़ है। ये वो बेमोल आवाज़ है जिसने बड़े से बड़े शायरों को हमारे सामने सजीव किया। अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा। मनोभावों और स्थितियों की सटीक फिल्म की तरह। आम आदमी की जिंदगी को उन्होने बख़ूबी गाया। कितनी ही प्रेम कहानियां उनकी ग़ज़लों से शुरू हुईं और आदमी की कितनी ही त्रासदियां उन्होने बयां की। चाहे तब, जब वो गा रहे हों- ‘‘ये तेरा घर, ये मेरा घर, ये घर बहुत हसीन है।’’ या फिर तब, जब उन्होनें गाया हो- ‘‘अब मैं राशन की क़तारों में नज़र आता हूं।’’
अपने बेटे की अकाल मृत्यु के बाद, जब उनकी जीवनसंगिनी चित्रा सिंह ने गाना ही छोड़ दिया, तब भी जगजीत जी की भाव पारगम्यता और उसे अभिव्यक्त करने की धार बढ़ती ही गई। और इस धार ने श्रोताओं तक को उस भाव से सराबोर कर दिया। तब भी निजी जिंदगी को उन्होने अपनी कला के आड़े नहीं आने दिया। तब भी वे गाते ही रहे। यहां तक कि 20 सितम्बर 2011 को उनकी अंतिम मंचीय प्रस्तुति हुई और जिस दिन उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ उस दिन भी वो गुलाम अली के साथ प्रस्तुति करने जाने ही वाले थे। इतनी त्रासदियों के बाद भी, ये उनका संगीत के लिए जुनून और समर्पण ही था कि वो तो सब झेल कर भी गाते रहे- ‘‘अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफर के हम है, रूख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम है।’’ ये साबित करता है कि संगीत के लिए उनकी रूमानियत की कोई हद नही थी। कहते हैं कि वो अब भी इतने खुशमिजाज थे कि स्टेज पर समय समय पर कितने ही लतीफें सुनाते रहते थे।
हमारी ग़ज़ल गायकी को उन्होनें परम्परागत शैली से अपनाते हुए आज के नए दौर की नई साउण्ड टैक्नालाजी से रूबरू कराया और संगीत में हो रहे वैष्विक प्रयोगों को भी आत्मसात् किया, और एक नई शैली को स्थापित किया। दुनिया की अलग अलग शैलियों का मिश्रण भी किया उन्होने। और देखिए कि आज ग़ज़ल गाने वालों में ज्यादातर उन्हे ही फालो करते मिलेगें। चाहे वो पुराने समय के परम्परागत् जगजीत हो या फिर आज के समय के आधुनिक जगजीत। हां उन्होने ग़ज़ल के कन्टेंट से कभी समझौता नही किया और उनकी 
ग़ज़लों में हमेशा एक संदेश  समाहित रहा। आज के दौर में पापुलर फिल्म संगीत और शास्त्रीय संगीत से हटकर ग़ज़ल गायकी में इतना बड़ा मुकाम हासिल करना कोई आसान बात नही है। पर वास्तव में जगजीत ने जग जीत लिया। अपनी आवाज़ से। अपनी गायकी से। अपनी ग़ज़ल से। कम लोगों को मालूम है कि खयाल गायकी, टप्पा, और ध्रुपद गायकी की कमाल की समझ थी उनमें। फिर भी इतनी कमाल की सरल और सुगम्य संगीत रचनाएं कि एक आम आदमी जिसने कभी संगीत न जाना हो, वो भी उनकी ग़ज़लों से जुड़ जाता था। वो इतने बड़े कलाकार थे कि मास और क्लास दोनों को संतुष्ट करना उन्हें अच्छी तरह आता था।
इतना कुछ लिख गया। बस उन्हें सोचते-सोचते। पर फिर भी लग रहा है कि -
‘‘मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द के जाने को कौन। आवाज़ों के बाज़ारों में, ख़ामोशी पहचाने कौन।’’
दुनिया चलती रहेगी। 
ग़ज़लें भी गायी जाती रहेगीं। पर बस अब जगजीत सिंह नहीं होगें। आने वाली ग़ज़लों को अब जगजीत सिंह की आवाज़ नही मिल सकेगी। और लोगों को अपना ही दर्द समझाने वाला, महसूस करा सकने वाला शख़्स ना मिल सकेगा। जगजीत जी के जाने पर मैनें किसी को कहते सुना कि ग़ज़ल अब अनाथ हो गई। वाकई अब ग़ज़ल क्या होगी। क्या जाने। आने वाला वक्त देखेगा। ग़ज़ल जब तक रहेगी, जगजीत सिंह का एक अलग मकाम उसमें हमेशा रहेगा।




मेरे कुछ मित्र उनके जाने से गहरे सदमें में हैं। ये वही मित्र हैं जिन्होने जगजीत सिंह की बदौलत ही संगीत क्षेत्र में पदार्पण किया। अनेक दिलों में उनकी आवाज़ गहरे पैठ कर चुकी है। और माने या न माने, पर जगजीत सिंह की ग़ज़ल हिन्दुस्तान ही नहीं दुनिया की ग़ज़ल गायकी की स्वर्ण - कृतियों में हमेशा शामिल की जाएगी। उनके जाने के गम में सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए हर आदमी अपना दुःख बयान कर रहा है। मेरे फेसबुक मित्रों में से कुछ लोगों की महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां कुछ इस तरह से आईं है -

व    आज का दिन बेहद कयामत है...क्या कहूँ कुछ मन ही नहीं है कहने का...जगजीत साहब आप तो हमारे दिल में हैं।
विलास पंडित (शायर)
व    जगजीत जी आपने तरकीब के गाने- ‘‘कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है, तुमको भूल न पाएगें अब ऐसा लगता है।’’ को जो सुर दिये थे और जो दर्द दिया गाने को, आपकी आवाज़ ने गाने को चार चांद लगा दिये। यू विल बी मिस्ड, मे योर सोल रेस्ट इन पीस।
आदेश श्रीवास्तव (फिल्म संगीतकार)

व    
ग़ज़ल सम्राट के विदा होने का बहुत अफसोस है उनकी कमीं पूरे ब्रह्मांड में कोई पूरी नहीं कर सकता। संगीत प्रेमियों की ओर से उन्हे श्रद्धांजलि देता हूँ। भगवान इस महान् शख्सियत की आत्मा को शांति दे और हमें यह सदमा सहने की हिम्मत।
अखिलेश तिवारी (स्टेज सिंगर)
व    इक आवाज मुझसे जुदा हुई ..... जाते जाते मुझे बहरा ही कर जाता ....... ए ब्लैक डे इन मोनिंग.... रेस्ट इन पीस जगजीत सिंह
बसंत सिंह (कवि गायक एवं संगीतकार)

जगजीत सिंह जैसी शख्सियत को बयां करने का माद्दा मेरे लफ़्ज़ों में नहीं है। बस इस बात के साथ विराम लेता हूँ-
खुद को बयान करना, इतना आसान नहीं
हर दर्द बयान करना, तुमसे सीखूंगा।

अभिषेक त्रिपाठी

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