Sunday, August 23, 2015

!! बाल रंगमंच: सीमायें और सम्भावनायें !! डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी (Child Theatre: Limitations and Possibilities- Dr. Sevaram Tripathi)

!! बाल रंगमंच: सीमायें और सम्भावनायें !! (डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी)
(Child Theatre: Limitations and Possibilities- Dr. Sevaram Tripathi)



        यूं तो रंगमंच बहुत व्यापक आयामों में प्रयुक्त होने वाला शब्द है। यह समूची सृष्टि के भावों का अनुकरण करता है। धर्म, क्रीड़ा, शांति, हंसी-खुशी, संघर्ष, अनीति, संयम सब इसके भीतर हैं। यह उत्साह जगाने वाला है। हर प्रकार के भावों, रसों, रंगों, रूपों, रूपकों और प्रतिमानों को अपने भीतर जज्ब करने वाला भी है। भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में कहा है कि ‘‘यह नाट्य उत्तम, मध्यम और नीच सभी प्रकार के लोगों के कार्यों से सम्बद्ध है और सबको हितकारी उपदेश देने वाला तथा धैर्य, क्रीड़ा, सुख देने वाला भी है। ..... यह नाट्य दुःख से अति परिश्रम से क्लान्त शोक से संतप्तजनों को समय पर विश्राम देने वाला होगा। ..... न कोई ऐसा ज्ञान है न शिल्प है न विद्या न कोई ऐसी कला है न योग है और न ही कोई कार्य ही है जो इस नाट्य में न प्रदर्शित किया जाता हो।’’
        रंगमंच के दायरे में सब कुछ है। वह जीवन भी है और जीवन की पुनर्रचना भी। नाटक बनने से लेकर यानी स्क्रिप्ट से लेकर उसके प्रदर्शन तक हमारे जीवन, समय, समाज और सम्भावनाओं की जितनी भी रंग छवियां हैं जितनी भी शिल्प-संरचनायें हैं। संघर्ष, द्वन्द्व और कलायें हैं, इस नाट्य में सबके लिये पर्याप्त स्थान है। उन सबकी तेजस्वी भूमिका भी। इसकी ग्रहण क्षमता इतनी व्यापक, विशाल एवं विपुल है कि यह कहीं से कुछ भी ग्रहण करने में समर्थ है। शेक्सपियर ने संसार को रंगमंच कहा है तो उनका आशय जीवन्तता, ग्राहयता, संलग्नता, विशालता और मनुष्य के संघर्ष के विविध आयामों एवं कोणों से रहा है। जिस तरह हमारा जीवन निरन्तर विकासमान, गतिमान, ऊर्जावान और परिवर्तनशील होता है। उसी तरह रंगमंच भी। रंगमंच में सब कुछ को अपने में समो लेने की शक्ति और क्षमता है जैसे कि हमारे जीवन में होती है। इसलिये जीवन और रंगमंच एक दूसरे के पूरक और समानधर्मा भी हैं।
        रंगमंच इकहरी कला सृष्टि नहीं है। वह कलाओं का समुच्चय है। समूची कलाओं की आवाजाही और भूमिकायें रंगमंच में सम्प्रेषण को जीवन्त बनाती है और उसकी ग्रहण क्षमता को बहुस्तरीयता प्रदान करती हैं। रंगमंच में अमूर्त को मूर्त करने की क्षमता है। नाट्यालेख को निर्देशक की योग्यता और अभिनेताओं की अभिनय क्षमता और विभिन्न कला संरचनाओं के द्वारा जीवन्त करने की क्षमता है। अर्थात् वह शरीर में प्राण फूंकने उसे जीवन्त गतिशील और सार्थकता में रूपान्तरित भी करता है। दोनों की अनिवार्यता भी है।
         रंगमंच की अनेक शैलियां हैं। उसकी विकास यात्रा के अनेक सोपान हैं। लोक रंगमंच से लेकर पारसी थियेटर, रामलीला, ब्रेख्त शैली, शेक्सपियर शैली, नौटंकी, स्वांग, नाचा विदेशिया, रास, यात्रा, भवाई माच, भांण, शास्त्रीय रंगमंच, एब्सर्ड रंगमंच, नुक्कड़ रंगमंच आदि ने इस जीवन की पुनर्रचना वाले आयामों को इतनी सघनता और विस्तार दिया है कि इसे हम समग्र रंग आंदोलन कह सकते हैं। इसमें सीखने-सिखाने, जीवन की नस-नस को पहचानने, उसमें डूब जाने, समा जाने यानी जीवन को नये सिरे से प्रस्तुत करने के विभिन्न रूपों को चाक्षुष बनाने की क्षमता है। रंगमंच के विराट आंदोलन में कई तरह के स्वर हैं, कई तरह की प्रविधियां भी हैं। रंग आंदोलन में अतीत से लेकर वर्तमान तक कई प्रकार के प्रभाव रहे हैं। सबका अपना-अपना महत्व है। ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’ कई तरह की भाव छवियां रंग छवियां भी रही हैं कि - केशव कहि न जाय का कहिये/देखत तब रचता विचित्र अति समुझि मनहिं मन रहिये। मैं इन विभिन्न स्वरों में से एक स्वर को प्रतीक के तौर पर रखना चाहता हूं और वह स्वर है नुक्कड़ रंगमंच का। जिसे कुछ समूह और अति आग्रही रंगमंच ही नहीं मानना चाहते। सफदर हाशमी के अनुसार - ‘‘आधुनिक राजनैतिक नुक्कड़ रंगकर्म एक सामाजिक जरूरत की पैदाइश है। जनवादी आंदोलन से जो जन संस्कृति पैदा होती है नुक्कड़ नाटक उसी का एक अंग है। पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था ने जो सांस्कृतिक नेटवर्क खड़ा किया है वह जनवरी संस्कृति के प्रचार का माध्यम नहीं बन सकता। (स्वातंत्रयोत्तर युगीन परिप्रेक्ष्य और नुक्कड़ नाटक, पृ.116) इसी तरह ब्रेख्त नाटक और रंगमंच को उन लोगों की आवाज़ बना देने के पक्ष में थे, जिन्हें व्यवस्था बोलने नहीं देती। नुक्कड़ रंगमंच जनता का जनता द्वारा जनता के लिए खेलने, प्रशिक्षित करने वाला और उनके जीवन में काम आने वाला रंगकर्म है। इसीलिये इसे अपार ख़्याति भी मिली।
        जनता से सीखने-सिखाने वाली जीवन की बहुआयामी, बहुस्तरीय बहुकोणीय कला माध्यम के रूप में रंगमंच का कोई और विकल्प हो ही नहीं सकता। सम्भवतः इसीलिये जब से मनुष्य है उसका जीवन है उसके कार्य व्यवहार हैं तब से यह माध्यम है अपनी कमियों खूबियों से संघर्षरत जीवन के विविध आयामों के साथ। भरतमुनि के पहले भी रंगमंच रहा होगा। उसका कोई न कोई ड्राफ्ट भी रहा होगा नहीं तो भरतमुनि का इतना बहुस्तरीय नाट्य शास्त्र सम्भवतः नहीं रचा जा सकता था। यह प्रश्न मेरे लिये महत्वपूर्ण है।
        जहां तक बाल नाटकों और बाल रंगमंच का सवाल है उसका विकास अभी भी हासियें में हैं। प्रश्न है कि जब बाल साहित्य, बाल नाटकों और बाल रंगमंच को गम्भीरता से नहीं लिया जाता तो उसके स्तर गति और विकास की चिन्ता किसे हो सकती है। बाल नाटकों की स्थिति भी कमज़ोर है। नाटक सम्प्रेषण की दृष्टि से सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है। बाल नाटकों का लिखा जाना भी बहुत कम है, फिर तो बाल रंगमंच की कल्पना करना उसके विकास का सपना देखना, दूर की बात है लेकिन यह सपना हम देख रहे हैं। बाल नाटकों की विशिष्टता यह होती है कि वे उनकी संवेदना, सीखने की कला, उनके अनुभव संसार में शामिल होकर सामाजिक, सांस्कृतिक जटिलताओं को और जीवन की आपाधापियों को बिना मस्तिष्क में अधिक जोर दिये दुनिया को जान-पहचान सकते हैं। साहित्य और कला माध्यमों में बाज़ार ने, सूचना संसार ने घेरेबंदी कर रखी है। इन वास्तविकताओं से जूझना बाल नाटकों के लेखकों को बहुत सतर्क होकर सोचना पड़ेगा। बच्चों में अनुकरण की क्षमता गजब की होती है। उनके भाव जगत में उनके निर्दोष मन में हर चीज़ का असर बहुत ज़्यादा होता है वह रेत पर खिंची लकीर की तरह नहीं वरन् पत्थरों में अंकित छवियों की तरह होता है। बाल मन में अश्लील और कुरूप छवियों के प्रभाव भी जल्दी असर डालते हैं। मुझे लगता है कि लोक कथायें, लोक प्रसंग, लोक रुचियों से निर्मित नाटक जिनमें यथार्थ का निष्कलुष अंकन हो तो वे जीवन छवियों को शिद्धत के साथ अभिव्यक्त कर सकते हैं। वैसे भी बच्चों की दुनिया निराली होती है। उनका मन निर्मल, उनमें जिज्ञासा, अकूत प्रभाव ग्रहण की क्षमता अकूत होती है। उनकी पकड़ भी तेज़ होती है। बाल नाटकों की भाषा सरस, सरल और सहज होनी चाहिये। उसमें जटिलता के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये। बाल नाटकों को खेले जाने वाला रंगमंच आकर्षक चटक रंगों से सजा, आंखों को सुखकर प्रीतिकर हो, नृत्य संगीत से युक्त हो। छोटे-छोटे संवाद हो, जिनमें मानवीय संवेदना का घोल हो। ताकि बच्चे इसे आसानी से हृदयंगम कर सकें। क्योंकि उनके मन पर इन सभी के स्थायी प्रभाव हेाते हैं। एक चुनौती बाल नाटकों के निर्देशन की भी है। बड़े बुजुर्ग जब तक बाल मनोविज्ञान, बाल सौन्दर्य बोध और जीवन में कल्पना शक्ति की भूमिका को श्रेष्ठ सृजनात्मकता के लिये कारगर होती है। इससे जुड़े बिना यथार्थ के प्रस्तुतीकरण की समझ के बिना उनके रंगमंच को विकसित नहीं किया जा सकता।
        रंगमंच भी एक खेल की तरह है। बच्चों के नाटकों का लेखन एवं निर्देशन करने के लिये उनकी संवेदन क्षमता की समझ भी होनी चाहिये। मैं ‘तारे जमीन पर’ फिल्म के उन दृश्यों, भंगिमाओं और दृष्यावलियों की याद दिलाना चाहता हूँ, जिसमें कला का अध्यापक बच्चे को जब सही ढंग से समझ लेता है। उसकी कमज़ोरियों को उसके अंदर छिपी क्षमता को तो वही बच्चा जो सभी के लिये हास्य का पात्र था, मजाक बन गया था। वही बच्चा सर्वाधिक प्रभावी व्यक्तित्व बन जाता है। निर्देशक के रूप में रचनात्मकता के स्तरों का समझदारी से प्रयोग करना यह एक बड़ी चुनौती होती है। बच्चों के नाटक लिखने वाले चाहे जितने बड़े हों, समझदार हों लेकिन तर्क और समस्याओं के हल बच्चों की दुनिया के ही होंगे। जो शब्दों के इस पार से उस पार तक की यात्रा करेगा। कल्पना की दुनिया की असीमित परिभाषाओं के परे जाकर। लेखक और निर्देशक को रंगों की समझ, बालमन पर पड़ने वाले प्रभावों की समझ जितनी ज़्यादा होगी बाल रंगमंच की सम्भावनायें उतनी ही बढ़ेगी। बच्चों का कथानक और उसका समूचा रूप उन्मुक्त होना चाहिये। बच्चा कहीं भी अपने को बंधा हुआ या जकड़ा हुआ अनुभव न करें यदि ऐसा हो सका तो रंगमंच बालकों के लिये एक खेल से ज़्यादा कुछ न होगा और उनका अभिनय जीवन्त मूर्त एवं अभूतपूर्व होगा। रंगमंच जहां नाटक खेला जा रहा है वह बच्चे के लिये कार्यशाला भी है और मुक्त स्थल भी है। वह उसके लिये कोई क़ैदख़ाना नहीं। बल्कि खेल का हरा-भरा उन्मुक्त  मैदान है, जहां बालक अपने मनभावन खेल खेलने जा रहा है।
        बच्चों के नाटकों के सन्दर्भ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के अनुभव कुछ इस तरह हैं - ‘‘बच्चे को यथार्थवादी रंगमंच की ज़रूरत नहीं है। वह एक तिनके से जितनी बड़े कल्पना कर सकता है बड़े नहीं कर सकते। उसे कल्पनाशील सादा रंगमंच चाहिये। एब्सर्ड होने में उसे और मजा आता है। वह प्रकृति, पशु, पक्षी, जानवरों, टीमटाम, नाच गान, शोरगुल सबसे बड़ी लगन से जुड़ता है। अतः उसके लिये नाटक लिखना एक विशाल कैनवैस के सामने खड़ा होना है। यदि आप उस कैनवैस के सामने ख़ुद को छोटा महसूस न करें तो बच्चे के नाम पर वह कैनवैस छोटा नहीं होगा।’’
        मुझे लगता है हमें बच्चों को केवल बच्चा समझने से बचना चाहिये। उनको अंदर बहुत कुछ पकता है। अनेक प्रकार के प्रभाव होते हैं, चित्रमयता होती है, सीखने की जैसी उद्दाम इच्छा उनमें होती है, उतनी बड़ों में नहीं। उनकी अनगढ़ता में कला की, जीवन की जितनी सुगढ़ता होती है, उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। उनके लिये न तो चैखटे बनायें न उन्हें सीमित संसार में क़ैद करने की चेष्टा करें। सर्वेश्वर जी यह भी मानते हैं वह कम में बहुत कुछ ग्रहण कर लेगा बशर्ते आप उसके साथ मिलकर रच रहे हों। लोक नाटकों के रंगारंग उपकरण आपके पास हैं। क़लम आपके हाथ में है उनके साथ बैठिये, रचिये। दुनिया में और कहीं मुक्ति देने पर मुक्ति मिलती हो या न मिलती हो पर बच्चे के लिये ऐसा रचकर जिससे कि वह मुक्त हो, रचनाकार अवश्य खुद को मुक्त महसूस करता है। (बाल साहित्य रचना और समीक्षा, पृष्ठ 117-18)
        बाल रंगमंच अभी भी समस्याओं से घिरा हुआ है। बड़े लोगों का इस क्षेत्र में दख़ल बहुत है। ध्यातव्य है कि बाल रंगमंच बच्चों का खुला संसार हो उनको अभिनय की छूट हो, उसमें वेशभूषा ज़्यादातर उन्हीं के अनुकूल हो। पर्दा उठाने गिराने की समस्या न हो। बच्चे सहज रूप में संवाद अदायगी करें तो बेहतर हो। ऐसा नहीं है कि प्रारम्भ से लेकर अभी तक का बाल रंगमंच शून्य में है। यह समझना भूल होगी। नर्मदा प्रसाद खरे ने नवीन बाल नाटक माला (1955) केशवचंद वर्मा - बच्चों की कचहरी (1956) चचा छक्कन के ड्रामे (कुंदसिया जैदी) वे सपनों के देश से लौट आये (भानु मेहता) प्रतिनिधि बाल एकांकी (1962) सिद्धनाथ कुमार कृत आओ नाटक खेलें (1962) चुने हुये एकांकी (1965) सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कृत ‘भों भों खों खों’ आदि प्रमुख हैं। ये तो कुछ नमूने हैं। बाल नाटकों का बाल रंगमंच का बहुविध प्रयोग हिन्दी संसार में हुआ है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये। बालकों के चहुमुखी विकास में उनके व्यक्तित्व निर्माण में रंगमंच की उपयोगिता किसी से छिपी नहीं है। केन्द्रीय रंगमंच की तरह बाल रंगमंच भी दुर्दशाओं उपेक्षाओं में फंसा हुआ है। रंगमंच के ज्ञाता बाल रंगमंच की ओर समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। उनके मन में या तो यह दुविधा है कि यह तो कमतर रंगमंच है जबकि सही बात तो यह है कि बाल रंगमंच ही रंगमंच की बुनियाद है। इसी से बड़ों का रंगमंच शक्तिशाली होना इसे हमें नहीं भूलना चाहिये।
        यह सुविख्यात तथ्य है कि बच्चों में सीखने की जानने की प्रश्नांकन करने की और अभिनय करने की नैसर्गिक प्रतिभा होती है। उन्हें उनकी क्षमता के अनुरूप, उनकी योग्यता के अनुरूप यदि निर्देशित किया जाता है तो वे अपनी अपार सम्भावनाओं को चुटकी बजाते हुए सिद्ध कर देते हैं। क्योंकि उनकी प्रतिभा का प्रस्फुटन सहज, सरल और स्वाभाविक ऊर्जा से भरा होता है। जाहिर है कि वयस्कों का रंगमंच या मुख्य धारा का रंगमंच भी उतनी आसानी से जिन चीज़ों का प्रदर्शन नहीं कर पाता। बच्चे उन्हें स्वाभाविक रूप में कर डालते हैं। दरअसल रंगमंच अपने व्यक्तित्व को और जीवन के बहुविध आयामों को व्यक्त करने की जीवन्त कला है। जहां बनावटीपन नहीं होता। बच्चों में गीत, संगीत, नृत्य और खेल के प्रति सहज ही आकर्षण होता है। वे दूसरों की देखादेखी उनकी बढि़या नकल कर डालते हैं। उनमें वेशभूषा के प्रति, साज-सज्जा के प्रति एवं रंगों के प्रति गहरा आकर्षण होता है। रंगमंच तो सभी कलाओं का समुच्चय है। बालक के मन में अपने आपको उजागर करने प्रश्नांकन करने की अद्भुत क्षमता होती है। बड़ो के थोड़े से निर्देश पर वे आश्चर्यचकित करने वाले कारनामों को अंजाम दे सकते हैं। यह कोई रहस्य नहीं है। अनेक बार बच्चों ने हमें साबित भी किया है।
        बाल रंगमंच के प्रति अभी समुचित रूप से शासन प्रशासन और इसमें सम्बद्ध पक्षों का इतना ध्यान नहीं गया। जितना जाना चाहिये था। इस उदासीनता के सामाजिक, सांस्कृतिक कारणों के अलावा कहीं न कहीं हमारी गहरी उपेक्षा और तिरस्कार की भावना है। अब समय की ज़रूरत है कि हम बाल रंगमंच की ओर ध्यान दें उसे पेशेवर और गैर पेशेवर रंगमंच की तकनीकों एवं शिल्प विधि का प्रयोग करते हुये उन्नतिशील बनायें और यदि ऐसा हो सका तो मुख्यधारा के रंगमंच को भी ताकत और गति मिलेगी। श्री प्रसाद ने चिन्ता व्यक्त करते हुये लिखा है कि ‘‘बाल रंग कर्म प्रायः वयस्क रंगकर्म का अनुवर्ती रहा है। हिन्दी में वयस्क रंग गतिविधि जब भी बढ़ी है बाल रंगमंच का भी उत्थान हुआ है। आज बड़ों का रंगमंच भी अपनी चमक खो रहा है। फलतः बाल रंगमंच भी फीका हो रहा है। नाटक की परिणति है मंचन। बाल रंगमंच के अभाव में बाल नाट्य सृजन भी कमज़ोर हो गया।’’
        रंगमंच एक जटिल श्रम साध्य और बहुमुखी माध्यम हैं। उसके लिये अभी तक देश के किसी प्रांत में उसे वैकल्पिक विषय के रूप में भी स्वीकृत नहीं किया गया। बाल नाटकों का न लिखा जाना कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि बाल रंगमंच ही अभी तक सक्रिय नही है, उसके बारे में किसी को कोई चिन्ता नहीं है। नेमिचन्द्र जैन ने बहुत वर्षों पहले इसे रेखांकित किया था। केवल प्रशिक्षण, प्रदर्शन भाषा की शुद्धता बोलने की तकनीक और संवादों की अदायगी में रंगमंच का प्रयोग सार्थक हो सकता है। नाटक के पूर्वाभ्यासों में कई तरह के प्रयोग किये जाते हैं। दृश्य सज्जा, रूप सज्जा, ध्वनियों के प्रति आकर्षण रंगों रूपाकारों के प्रति जुड़ाव, संगीत और नृत्य की भाव-भंगिमायें बच्चे आसानी से सीख सकते हैं। नेमिजी का यह मानना सही है कि - ‘‘नाटक के प्रदर्शन में भाग लेना बालक के व्यक्तित्व को भी कई प्रकार से समृद्ध सम्पन्न करता है। नाटक में भाग लेकर बच्चे समुदाय में रहना, काम करना और परस्पर सहयोग करना सीखते हैं। इसी प्रकार कई स्तरों पर समय का पालन करने का भी उन्हें अभ्यास हो सकता है। न सिर्फ़ प्रदर्शन और पूर्वाभ्यास के लिये ठीक वक़्त पर पहुंचना ज़रूरी होता है, बल्कि नाटक में अनेक कार्य किसी निश्चित संकेत पर तुरन्त शुरु कर देने पड़ते हैं, उसमें ढील होने पर नाटक बिखर जाता है।’’ (बाल साहित्य रचना और समीक्षा, पृ.106)
        बाल रंगमंच के विकास में यूं तो कमियां बहुत हैं लेकिन यह भी नहीं माना जा सकता कि अभी तक कुछ काम ही नहीं हुआ। इस निषेधात्मक प्रवृत्ति से हमें बाहर आना है। छठवें दशक में बाल रंगमंच की सक्रियता बढ़ी है। स्कूलों में वार्षिक समारोहों के लिये दिल्ली जैसे महानगरों से लेकर कस्बों, गांवांे, नगरों में किसी न किसी रूप में बाल रंगमंच की सक्रियता रही है। हां, उन नाटकों के कुछ निर्देशन खानापूर्ति के रूप में हुये और कहीं-कहीं पूर्वाभ्यासों में मेहनत से, लगन से काम हुये और उन्हें भरपूर सराहना मिली। इसके अलावा दिल्ली बाल रंगमंच की स्थापना से इस रंग आंदोलन को नई गति और ऊर्जा मिली है। ‘भूमिका’ नामक संस्था को भुलाया नहीं जा सकता। सुषमा सेठ के निर्देशन में चिल्ड्रेंस क्रियेटिव थियेटर ने बहुत उपयोगी काम किये हैं। ब.ब. कारंत, कविता नागपाल और हरजीत ने भी प्रदर्शन कराये हैं। नेमिचंद जैन का मानना है कि ‘‘जब तक बाल रंगमंच हमारे जीवन में एक आवश्यक और स्वतंत्र कार्य के रूप में मान्यता नहीं पाता तब तक स्थितियों में कोई खास सुधार सम्भव नहीं है। ..... हिन्दी में वयस्कों के रंगमंच की भांति यहां भी एक विरोधाभास लगातार दीख पड़ता है। नाटकों में ये बातें सक्रिय बाल रंगमंच के बिना नहीं आ सकतीं और सक्रिय बाल रंगमंच अच्छे नाटकों के बिना नहीं बन सकता। (बाल नाटक: घर से रंगमंच तक, पृ.110)
        बाल रंगमंच के बारे में इतने प्रश्न हैं, इतनी शंकायें हैं कि क्या कहें और क्या न कहें ? लेकिन निराश होने की ज़रूरत नहीं है। बाल रंगमंच हो रहे हैं। बाल नाटक लिखे जा रहे हैं। कमी-वेशी की समस्या एक अलग समस्या है। रंगमंच वैसे भी बड़ी साधना, सक्रियता, कल्पनाशीलता, त्याग और उत्कट ईमानदारी की मांग करता है। रंगमंच की सक्रियता ने उन अवरोधों को तोड़ दिया है जिसके लिये कहा जाता था कि संचार माध्यम उसके विकास को खत्म कर देंगे। मीडिया दृश्य श्रव्य माध्यम और मल्टी मीडिया उसे बढ़ने नहीं देगा। विज्ञापन और बाज़ार की आंधियां शब्द माध्यम में और रंगमंच को क्षति पहुंचायेंगे। भारतेन्दु हरिशचन्द जयशंकर प्रसाद जी की चिन्तायें वाजिब थी। लेकिन रंगमंच की सामाजिक संलग्नता और संवेदनशीलता ने रंगमंच को विश्वसनीयता प्रदान की है। लेकिन सवाल अभी भी हमारा पीछा कर रहे हैं, जिनसे रंगकर्मियों को निरन्तर टकराना पड़ेगा।

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