Sunday, August 23, 2015

!! बाल रंगमंच: सीमायें और सम्भावनायें !! डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी (Child Theatre: Limitations and Possibilities- Dr. Sevaram Tripathi)

!! बाल रंगमंच: सीमायें और सम्भावनायें !! (डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी)
(Child Theatre: Limitations and Possibilities- Dr. Sevaram Tripathi)



        यूं तो रंगमंच बहुत व्यापक आयामों में प्रयुक्त होने वाला शब्द है। यह समूची सृष्टि के भावों का अनुकरण करता है। धर्म, क्रीड़ा, शांति, हंसी-खुशी, संघर्ष, अनीति, संयम सब इसके भीतर हैं। यह उत्साह जगाने वाला है। हर प्रकार के भावों, रसों, रंगों, रूपों, रूपकों और प्रतिमानों को अपने भीतर जज्ब करने वाला भी है। भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में कहा है कि ‘‘यह नाट्य उत्तम, मध्यम और नीच सभी प्रकार के लोगों के कार्यों से सम्बद्ध है और सबको हितकारी उपदेश देने वाला तथा धैर्य, क्रीड़ा, सुख देने वाला भी है। ..... यह नाट्य दुःख से अति परिश्रम से क्लान्त शोक से संतप्तजनों को समय पर विश्राम देने वाला होगा। ..... न कोई ऐसा ज्ञान है न शिल्प है न विद्या न कोई ऐसी कला है न योग है और न ही कोई कार्य ही है जो इस नाट्य में न प्रदर्शित किया जाता हो।’’
        रंगमंच के दायरे में सब कुछ है। वह जीवन भी है और जीवन की पुनर्रचना भी। नाटक बनने से लेकर यानी स्क्रिप्ट से लेकर उसके प्रदर्शन तक हमारे जीवन, समय, समाज और सम्भावनाओं की जितनी भी रंग छवियां हैं जितनी भी शिल्प-संरचनायें हैं। संघर्ष, द्वन्द्व और कलायें हैं, इस नाट्य में सबके लिये पर्याप्त स्थान है। उन सबकी तेजस्वी भूमिका भी। इसकी ग्रहण क्षमता इतनी व्यापक, विशाल एवं विपुल है कि यह कहीं से कुछ भी ग्रहण करने में समर्थ है। शेक्सपियर ने संसार को रंगमंच कहा है तो उनका आशय जीवन्तता, ग्राहयता, संलग्नता, विशालता और मनुष्य के संघर्ष के विविध आयामों एवं कोणों से रहा है। जिस तरह हमारा जीवन निरन्तर विकासमान, गतिमान, ऊर्जावान और परिवर्तनशील होता है। उसी तरह रंगमंच भी। रंगमंच में सब कुछ को अपने में समो लेने की शक्ति और क्षमता है जैसे कि हमारे जीवन में होती है। इसलिये जीवन और रंगमंच एक दूसरे के पूरक और समानधर्मा भी हैं।
        रंगमंच इकहरी कला सृष्टि नहीं है। वह कलाओं का समुच्चय है। समूची कलाओं की आवाजाही और भूमिकायें रंगमंच में सम्प्रेषण को जीवन्त बनाती है और उसकी ग्रहण क्षमता को बहुस्तरीयता प्रदान करती हैं। रंगमंच में अमूर्त को मूर्त करने की क्षमता है। नाट्यालेख को निर्देशक की योग्यता और अभिनेताओं की अभिनय क्षमता और विभिन्न कला संरचनाओं के द्वारा जीवन्त करने की क्षमता है। अर्थात् वह शरीर में प्राण फूंकने उसे जीवन्त गतिशील और सार्थकता में रूपान्तरित भी करता है। दोनों की अनिवार्यता भी है।
         रंगमंच की अनेक शैलियां हैं। उसकी विकास यात्रा के अनेक सोपान हैं। लोक रंगमंच से लेकर पारसी थियेटर, रामलीला, ब्रेख्त शैली, शेक्सपियर शैली, नौटंकी, स्वांग, नाचा विदेशिया, रास, यात्रा, भवाई माच, भांण, शास्त्रीय रंगमंच, एब्सर्ड रंगमंच, नुक्कड़ रंगमंच आदि ने इस जीवन की पुनर्रचना वाले आयामों को इतनी सघनता और विस्तार दिया है कि इसे हम समग्र रंग आंदोलन कह सकते हैं। इसमें सीखने-सिखाने, जीवन की नस-नस को पहचानने, उसमें डूब जाने, समा जाने यानी जीवन को नये सिरे से प्रस्तुत करने के विभिन्न रूपों को चाक्षुष बनाने की क्षमता है। रंगमंच के विराट आंदोलन में कई तरह के स्वर हैं, कई तरह की प्रविधियां भी हैं। रंग आंदोलन में अतीत से लेकर वर्तमान तक कई प्रकार के प्रभाव रहे हैं। सबका अपना-अपना महत्व है। ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’ कई तरह की भाव छवियां रंग छवियां भी रही हैं कि - केशव कहि न जाय का कहिये/देखत तब रचता विचित्र अति समुझि मनहिं मन रहिये। मैं इन विभिन्न स्वरों में से एक स्वर को प्रतीक के तौर पर रखना चाहता हूं और वह स्वर है नुक्कड़ रंगमंच का। जिसे कुछ समूह और अति आग्रही रंगमंच ही नहीं मानना चाहते। सफदर हाशमी के अनुसार - ‘‘आधुनिक राजनैतिक नुक्कड़ रंगकर्म एक सामाजिक जरूरत की पैदाइश है। जनवादी आंदोलन से जो जन संस्कृति पैदा होती है नुक्कड़ नाटक उसी का एक अंग है। पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था ने जो सांस्कृतिक नेटवर्क खड़ा किया है वह जनवरी संस्कृति के प्रचार का माध्यम नहीं बन सकता। (स्वातंत्रयोत्तर युगीन परिप्रेक्ष्य और नुक्कड़ नाटक, पृ.116) इसी तरह ब्रेख्त नाटक और रंगमंच को उन लोगों की आवाज़ बना देने के पक्ष में थे, जिन्हें व्यवस्था बोलने नहीं देती। नुक्कड़ रंगमंच जनता का जनता द्वारा जनता के लिए खेलने, प्रशिक्षित करने वाला और उनके जीवन में काम आने वाला रंगकर्म है। इसीलिये इसे अपार ख़्याति भी मिली।
        जनता से सीखने-सिखाने वाली जीवन की बहुआयामी, बहुस्तरीय बहुकोणीय कला माध्यम के रूप में रंगमंच का कोई और विकल्प हो ही नहीं सकता। सम्भवतः इसीलिये जब से मनुष्य है उसका जीवन है उसके कार्य व्यवहार हैं तब से यह माध्यम है अपनी कमियों खूबियों से संघर्षरत जीवन के विविध आयामों के साथ। भरतमुनि के पहले भी रंगमंच रहा होगा। उसका कोई न कोई ड्राफ्ट भी रहा होगा नहीं तो भरतमुनि का इतना बहुस्तरीय नाट्य शास्त्र सम्भवतः नहीं रचा जा सकता था। यह प्रश्न मेरे लिये महत्वपूर्ण है।
        जहां तक बाल नाटकों और बाल रंगमंच का सवाल है उसका विकास अभी भी हासियें में हैं। प्रश्न है कि जब बाल साहित्य, बाल नाटकों और बाल रंगमंच को गम्भीरता से नहीं लिया जाता तो उसके स्तर गति और विकास की चिन्ता किसे हो सकती है। बाल नाटकों की स्थिति भी कमज़ोर है। नाटक सम्प्रेषण की दृष्टि से सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है। बाल नाटकों का लिखा जाना भी बहुत कम है, फिर तो बाल रंगमंच की कल्पना करना उसके विकास का सपना देखना, दूर की बात है लेकिन यह सपना हम देख रहे हैं। बाल नाटकों की विशिष्टता यह होती है कि वे उनकी संवेदना, सीखने की कला, उनके अनुभव संसार में शामिल होकर सामाजिक, सांस्कृतिक जटिलताओं को और जीवन की आपाधापियों को बिना मस्तिष्क में अधिक जोर दिये दुनिया को जान-पहचान सकते हैं। साहित्य और कला माध्यमों में बाज़ार ने, सूचना संसार ने घेरेबंदी कर रखी है। इन वास्तविकताओं से जूझना बाल नाटकों के लेखकों को बहुत सतर्क होकर सोचना पड़ेगा। बच्चों में अनुकरण की क्षमता गजब की होती है। उनके भाव जगत में उनके निर्दोष मन में हर चीज़ का असर बहुत ज़्यादा होता है वह रेत पर खिंची लकीर की तरह नहीं वरन् पत्थरों में अंकित छवियों की तरह होता है। बाल मन में अश्लील और कुरूप छवियों के प्रभाव भी जल्दी असर डालते हैं। मुझे लगता है कि लोक कथायें, लोक प्रसंग, लोक रुचियों से निर्मित नाटक जिनमें यथार्थ का निष्कलुष अंकन हो तो वे जीवन छवियों को शिद्धत के साथ अभिव्यक्त कर सकते हैं। वैसे भी बच्चों की दुनिया निराली होती है। उनका मन निर्मल, उनमें जिज्ञासा, अकूत प्रभाव ग्रहण की क्षमता अकूत होती है। उनकी पकड़ भी तेज़ होती है। बाल नाटकों की भाषा सरस, सरल और सहज होनी चाहिये। उसमें जटिलता के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये। बाल नाटकों को खेले जाने वाला रंगमंच आकर्षक चटक रंगों से सजा, आंखों को सुखकर प्रीतिकर हो, नृत्य संगीत से युक्त हो। छोटे-छोटे संवाद हो, जिनमें मानवीय संवेदना का घोल हो। ताकि बच्चे इसे आसानी से हृदयंगम कर सकें। क्योंकि उनके मन पर इन सभी के स्थायी प्रभाव हेाते हैं। एक चुनौती बाल नाटकों के निर्देशन की भी है। बड़े बुजुर्ग जब तक बाल मनोविज्ञान, बाल सौन्दर्य बोध और जीवन में कल्पना शक्ति की भूमिका को श्रेष्ठ सृजनात्मकता के लिये कारगर होती है। इससे जुड़े बिना यथार्थ के प्रस्तुतीकरण की समझ के बिना उनके रंगमंच को विकसित नहीं किया जा सकता।
        रंगमंच भी एक खेल की तरह है। बच्चों के नाटकों का लेखन एवं निर्देशन करने के लिये उनकी संवेदन क्षमता की समझ भी होनी चाहिये। मैं ‘तारे जमीन पर’ फिल्म के उन दृश्यों, भंगिमाओं और दृष्यावलियों की याद दिलाना चाहता हूँ, जिसमें कला का अध्यापक बच्चे को जब सही ढंग से समझ लेता है। उसकी कमज़ोरियों को उसके अंदर छिपी क्षमता को तो वही बच्चा जो सभी के लिये हास्य का पात्र था, मजाक बन गया था। वही बच्चा सर्वाधिक प्रभावी व्यक्तित्व बन जाता है। निर्देशक के रूप में रचनात्मकता के स्तरों का समझदारी से प्रयोग करना यह एक बड़ी चुनौती होती है। बच्चों के नाटक लिखने वाले चाहे जितने बड़े हों, समझदार हों लेकिन तर्क और समस्याओं के हल बच्चों की दुनिया के ही होंगे। जो शब्दों के इस पार से उस पार तक की यात्रा करेगा। कल्पना की दुनिया की असीमित परिभाषाओं के परे जाकर। लेखक और निर्देशक को रंगों की समझ, बालमन पर पड़ने वाले प्रभावों की समझ जितनी ज़्यादा होगी बाल रंगमंच की सम्भावनायें उतनी ही बढ़ेगी। बच्चों का कथानक और उसका समूचा रूप उन्मुक्त होना चाहिये। बच्चा कहीं भी अपने को बंधा हुआ या जकड़ा हुआ अनुभव न करें यदि ऐसा हो सका तो रंगमंच बालकों के लिये एक खेल से ज़्यादा कुछ न होगा और उनका अभिनय जीवन्त मूर्त एवं अभूतपूर्व होगा। रंगमंच जहां नाटक खेला जा रहा है वह बच्चे के लिये कार्यशाला भी है और मुक्त स्थल भी है। वह उसके लिये कोई क़ैदख़ाना नहीं। बल्कि खेल का हरा-भरा उन्मुक्त  मैदान है, जहां बालक अपने मनभावन खेल खेलने जा रहा है।
        बच्चों के नाटकों के सन्दर्भ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के अनुभव कुछ इस तरह हैं - ‘‘बच्चे को यथार्थवादी रंगमंच की ज़रूरत नहीं है। वह एक तिनके से जितनी बड़े कल्पना कर सकता है बड़े नहीं कर सकते। उसे कल्पनाशील सादा रंगमंच चाहिये। एब्सर्ड होने में उसे और मजा आता है। वह प्रकृति, पशु, पक्षी, जानवरों, टीमटाम, नाच गान, शोरगुल सबसे बड़ी लगन से जुड़ता है। अतः उसके लिये नाटक लिखना एक विशाल कैनवैस के सामने खड़ा होना है। यदि आप उस कैनवैस के सामने ख़ुद को छोटा महसूस न करें तो बच्चे के नाम पर वह कैनवैस छोटा नहीं होगा।’’
        मुझे लगता है हमें बच्चों को केवल बच्चा समझने से बचना चाहिये। उनको अंदर बहुत कुछ पकता है। अनेक प्रकार के प्रभाव होते हैं, चित्रमयता होती है, सीखने की जैसी उद्दाम इच्छा उनमें होती है, उतनी बड़ों में नहीं। उनकी अनगढ़ता में कला की, जीवन की जितनी सुगढ़ता होती है, उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। उनके लिये न तो चैखटे बनायें न उन्हें सीमित संसार में क़ैद करने की चेष्टा करें। सर्वेश्वर जी यह भी मानते हैं वह कम में बहुत कुछ ग्रहण कर लेगा बशर्ते आप उसके साथ मिलकर रच रहे हों। लोक नाटकों के रंगारंग उपकरण आपके पास हैं। क़लम आपके हाथ में है उनके साथ बैठिये, रचिये। दुनिया में और कहीं मुक्ति देने पर मुक्ति मिलती हो या न मिलती हो पर बच्चे के लिये ऐसा रचकर जिससे कि वह मुक्त हो, रचनाकार अवश्य खुद को मुक्त महसूस करता है। (बाल साहित्य रचना और समीक्षा, पृष्ठ 117-18)
        बाल रंगमंच अभी भी समस्याओं से घिरा हुआ है। बड़े लोगों का इस क्षेत्र में दख़ल बहुत है। ध्यातव्य है कि बाल रंगमंच बच्चों का खुला संसार हो उनको अभिनय की छूट हो, उसमें वेशभूषा ज़्यादातर उन्हीं के अनुकूल हो। पर्दा उठाने गिराने की समस्या न हो। बच्चे सहज रूप में संवाद अदायगी करें तो बेहतर हो। ऐसा नहीं है कि प्रारम्भ से लेकर अभी तक का बाल रंगमंच शून्य में है। यह समझना भूल होगी। नर्मदा प्रसाद खरे ने नवीन बाल नाटक माला (1955) केशवचंद वर्मा - बच्चों की कचहरी (1956) चचा छक्कन के ड्रामे (कुंदसिया जैदी) वे सपनों के देश से लौट आये (भानु मेहता) प्रतिनिधि बाल एकांकी (1962) सिद्धनाथ कुमार कृत आओ नाटक खेलें (1962) चुने हुये एकांकी (1965) सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कृत ‘भों भों खों खों’ आदि प्रमुख हैं। ये तो कुछ नमूने हैं। बाल नाटकों का बाल रंगमंच का बहुविध प्रयोग हिन्दी संसार में हुआ है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये। बालकों के चहुमुखी विकास में उनके व्यक्तित्व निर्माण में रंगमंच की उपयोगिता किसी से छिपी नहीं है। केन्द्रीय रंगमंच की तरह बाल रंगमंच भी दुर्दशाओं उपेक्षाओं में फंसा हुआ है। रंगमंच के ज्ञाता बाल रंगमंच की ओर समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। उनके मन में या तो यह दुविधा है कि यह तो कमतर रंगमंच है जबकि सही बात तो यह है कि बाल रंगमंच ही रंगमंच की बुनियाद है। इसी से बड़ों का रंगमंच शक्तिशाली होना इसे हमें नहीं भूलना चाहिये।
        यह सुविख्यात तथ्य है कि बच्चों में सीखने की जानने की प्रश्नांकन करने की और अभिनय करने की नैसर्गिक प्रतिभा होती है। उन्हें उनकी क्षमता के अनुरूप, उनकी योग्यता के अनुरूप यदि निर्देशित किया जाता है तो वे अपनी अपार सम्भावनाओं को चुटकी बजाते हुए सिद्ध कर देते हैं। क्योंकि उनकी प्रतिभा का प्रस्फुटन सहज, सरल और स्वाभाविक ऊर्जा से भरा होता है। जाहिर है कि वयस्कों का रंगमंच या मुख्य धारा का रंगमंच भी उतनी आसानी से जिन चीज़ों का प्रदर्शन नहीं कर पाता। बच्चे उन्हें स्वाभाविक रूप में कर डालते हैं। दरअसल रंगमंच अपने व्यक्तित्व को और जीवन के बहुविध आयामों को व्यक्त करने की जीवन्त कला है। जहां बनावटीपन नहीं होता। बच्चों में गीत, संगीत, नृत्य और खेल के प्रति सहज ही आकर्षण होता है। वे दूसरों की देखादेखी उनकी बढि़या नकल कर डालते हैं। उनमें वेशभूषा के प्रति, साज-सज्जा के प्रति एवं रंगों के प्रति गहरा आकर्षण होता है। रंगमंच तो सभी कलाओं का समुच्चय है। बालक के मन में अपने आपको उजागर करने प्रश्नांकन करने की अद्भुत क्षमता होती है। बड़ो के थोड़े से निर्देश पर वे आश्चर्यचकित करने वाले कारनामों को अंजाम दे सकते हैं। यह कोई रहस्य नहीं है। अनेक बार बच्चों ने हमें साबित भी किया है।
        बाल रंगमंच के प्रति अभी समुचित रूप से शासन प्रशासन और इसमें सम्बद्ध पक्षों का इतना ध्यान नहीं गया। जितना जाना चाहिये था। इस उदासीनता के सामाजिक, सांस्कृतिक कारणों के अलावा कहीं न कहीं हमारी गहरी उपेक्षा और तिरस्कार की भावना है। अब समय की ज़रूरत है कि हम बाल रंगमंच की ओर ध्यान दें उसे पेशेवर और गैर पेशेवर रंगमंच की तकनीकों एवं शिल्प विधि का प्रयोग करते हुये उन्नतिशील बनायें और यदि ऐसा हो सका तो मुख्यधारा के रंगमंच को भी ताकत और गति मिलेगी। श्री प्रसाद ने चिन्ता व्यक्त करते हुये लिखा है कि ‘‘बाल रंग कर्म प्रायः वयस्क रंगकर्म का अनुवर्ती रहा है। हिन्दी में वयस्क रंग गतिविधि जब भी बढ़ी है बाल रंगमंच का भी उत्थान हुआ है। आज बड़ों का रंगमंच भी अपनी चमक खो रहा है। फलतः बाल रंगमंच भी फीका हो रहा है। नाटक की परिणति है मंचन। बाल रंगमंच के अभाव में बाल नाट्य सृजन भी कमज़ोर हो गया।’’
        रंगमंच एक जटिल श्रम साध्य और बहुमुखी माध्यम हैं। उसके लिये अभी तक देश के किसी प्रांत में उसे वैकल्पिक विषय के रूप में भी स्वीकृत नहीं किया गया। बाल नाटकों का न लिखा जाना कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि बाल रंगमंच ही अभी तक सक्रिय नही है, उसके बारे में किसी को कोई चिन्ता नहीं है। नेमिचन्द्र जैन ने बहुत वर्षों पहले इसे रेखांकित किया था। केवल प्रशिक्षण, प्रदर्शन भाषा की शुद्धता बोलने की तकनीक और संवादों की अदायगी में रंगमंच का प्रयोग सार्थक हो सकता है। नाटक के पूर्वाभ्यासों में कई तरह के प्रयोग किये जाते हैं। दृश्य सज्जा, रूप सज्जा, ध्वनियों के प्रति आकर्षण रंगों रूपाकारों के प्रति जुड़ाव, संगीत और नृत्य की भाव-भंगिमायें बच्चे आसानी से सीख सकते हैं। नेमिजी का यह मानना सही है कि - ‘‘नाटक के प्रदर्शन में भाग लेना बालक के व्यक्तित्व को भी कई प्रकार से समृद्ध सम्पन्न करता है। नाटक में भाग लेकर बच्चे समुदाय में रहना, काम करना और परस्पर सहयोग करना सीखते हैं। इसी प्रकार कई स्तरों पर समय का पालन करने का भी उन्हें अभ्यास हो सकता है। न सिर्फ़ प्रदर्शन और पूर्वाभ्यास के लिये ठीक वक़्त पर पहुंचना ज़रूरी होता है, बल्कि नाटक में अनेक कार्य किसी निश्चित संकेत पर तुरन्त शुरु कर देने पड़ते हैं, उसमें ढील होने पर नाटक बिखर जाता है।’’ (बाल साहित्य रचना और समीक्षा, पृ.106)
        बाल रंगमंच के विकास में यूं तो कमियां बहुत हैं लेकिन यह भी नहीं माना जा सकता कि अभी तक कुछ काम ही नहीं हुआ। इस निषेधात्मक प्रवृत्ति से हमें बाहर आना है। छठवें दशक में बाल रंगमंच की सक्रियता बढ़ी है। स्कूलों में वार्षिक समारोहों के लिये दिल्ली जैसे महानगरों से लेकर कस्बों, गांवांे, नगरों में किसी न किसी रूप में बाल रंगमंच की सक्रियता रही है। हां, उन नाटकों के कुछ निर्देशन खानापूर्ति के रूप में हुये और कहीं-कहीं पूर्वाभ्यासों में मेहनत से, लगन से काम हुये और उन्हें भरपूर सराहना मिली। इसके अलावा दिल्ली बाल रंगमंच की स्थापना से इस रंग आंदोलन को नई गति और ऊर्जा मिली है। ‘भूमिका’ नामक संस्था को भुलाया नहीं जा सकता। सुषमा सेठ के निर्देशन में चिल्ड्रेंस क्रियेटिव थियेटर ने बहुत उपयोगी काम किये हैं। ब.ब. कारंत, कविता नागपाल और हरजीत ने भी प्रदर्शन कराये हैं। नेमिचंद जैन का मानना है कि ‘‘जब तक बाल रंगमंच हमारे जीवन में एक आवश्यक और स्वतंत्र कार्य के रूप में मान्यता नहीं पाता तब तक स्थितियों में कोई खास सुधार सम्भव नहीं है। ..... हिन्दी में वयस्कों के रंगमंच की भांति यहां भी एक विरोधाभास लगातार दीख पड़ता है। नाटकों में ये बातें सक्रिय बाल रंगमंच के बिना नहीं आ सकतीं और सक्रिय बाल रंगमंच अच्छे नाटकों के बिना नहीं बन सकता। (बाल नाटक: घर से रंगमंच तक, पृ.110)
        बाल रंगमंच के बारे में इतने प्रश्न हैं, इतनी शंकायें हैं कि क्या कहें और क्या न कहें ? लेकिन निराश होने की ज़रूरत नहीं है। बाल रंगमंच हो रहे हैं। बाल नाटक लिखे जा रहे हैं। कमी-वेशी की समस्या एक अलग समस्या है। रंगमंच वैसे भी बड़ी साधना, सक्रियता, कल्पनाशीलता, त्याग और उत्कट ईमानदारी की मांग करता है। रंगमंच की सक्रियता ने उन अवरोधों को तोड़ दिया है जिसके लिये कहा जाता था कि संचार माध्यम उसके विकास को खत्म कर देंगे। मीडिया दृश्य श्रव्य माध्यम और मल्टी मीडिया उसे बढ़ने नहीं देगा। विज्ञापन और बाज़ार की आंधियां शब्द माध्यम में और रंगमंच को क्षति पहुंचायेंगे। भारतेन्दु हरिशचन्द जयशंकर प्रसाद जी की चिन्तायें वाजिब थी। लेकिन रंगमंच की सामाजिक संलग्नता और संवेदनशीलता ने रंगमंच को विश्वसनीयता प्रदान की है। लेकिन सवाल अभी भी हमारा पीछा कर रहे हैं, जिनसे रंगकर्मियों को निरन्तर टकराना पड़ेगा।

Tuesday, May 5, 2015

संगीत में संगत और वाद्यवृंद रचना-विधान : अभिषेक त्रिपाठी (Accompaniment and Orchestration in Music- Abhishek Tripathi)


भारतीय संगीत में आर्केस्ट्रा के लिए भरत के नाट्यशास्र के अलावा कोई अन्यत्र उल्लेख मेरी जानकारी में नहीं है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कुछ विद्वानों ने शनैः शनैः इस विषय पर चर्चा यदा-कदा अपने ग्रंथों व आलेखों में की है। यह निश्चित रूप से नैसर्गिक है, क्योंकि भारतीय संगीत मूलतः मेलोडी प्रधान भाव का है। यहाँ पर स्वरों की क्रमबद्ध मालिकाओं का ही प्रचलन है। एक समय पर मानव कंठ एक ही स्वर उत्पन्न कर सकता है। इसी भावना से पूरे भारतीय संगीत का साहित्य और शास्र रचा गया है। यूँ तो यह कहा जा सकता है कि हमने संगीत के मूल नैसर्गिक रूप को ही अक्षुण्य बनाए रखा है। इसी मूलभाव के विभिन्न रूप गायन और वादन की विधाओं में विद्यमान दिखाई देते हैं पर यह भी माना जा सकता है कि स्वरों से उत्पन्न होने वाले आनंद के लिए हमने प्रयोग और आधुनिकता का अनुसरण करने के बजाय यादातर इसे वर्य बनाए रखा। यह वर्जना भी शुद्धता के नाम पर प्रतिपादित की गयी। अब संगीत की उत्पत्ति  तो एक ही है, कहीं, न कहीं समूचे संगीत का एक ही स्रोत रहा होगा। या कहें कि संगीत के लिए आनंद के नाद के लिए, उस स्रोत की पहचान किसी एक ही व्यक्ति ने की होगी और कालांतर में वह भिन्न-भिन्न भौगोलिक, सामाजिक अवस्थाओं से होता हुआ आज इस रूप में है कि हम कहीं उसे हिंदुस्तानी संगीत कहते हैं, कहीं पर्सियन, इटालियन, फ्रेंच , यूनानी या ऐसा ही अन्य कहीं का भी संगीत।
मुझे लगता है कि यह भूगोल और समाज का प्रभाव है कि जो संगीत इन रूपों और प्रकारों में विद्यमान है तो अब यह आनंद और पसंद का प्रश्न है कि कहीं मेलोडी प्रधान संगीत प्रचलन में है और कहीं हार्माेनी प्रधान और कहीं-कहीं तो रिद्म प्रधान। कमोबेश इन्हीं तीनों गुणों के विभिन्न परिमाणों के मिश्रण संगीत के रूप में विभिन्न देशों क्षेत्रों में प्रचलित हैं। भारतीय संगीत चूँकि मेलोडी प्रधान है, इसलिए यह कलाकार प्रधान भी हैं, जहाँ तक प्रदर्शनकारी कलारूप का मामला है तो यह सच ही है कि हमारे संगीत में एक नेतृत्व, एक कलाकार की ही परिपाटी विकसित हो सकी है। सामूहिकता का अभाव है कि ज्यादा  से ज्यादा  हम संगत और उससे आगे जुगलबंदी तक ही पहुँच सके हैं। संगत को हम मूलतः मेलोडी को निबद्ध करने के लिए तालपक्ष की बंदिश के रूप में ही स्वीकार कर सके हैं। गायक या वादक के साथ, ताल और ताल वाद्यों के साथ किसी सुरीले वाद्य पर लहरा के इतर हमने प्रयोग भी लगभग नहीं किए हैं। यह लहरा भी मूलतः लय के स्थापना निर्देश को बनाए रखने के लिए है। वरना संगत कलाकार के लिए कोई नियम या शास्र नहीं रचा गया है। ऐसा मेरा मानना है। कोई भी कलाकार किसी दूसरे कलाकार के साथ संगत तभी तक कर सकता है, जब तक मुख्य कलाकार इस बात के लिए आश्वस्त है कि संगतकार उसके प्रदर्शन को ओवर शैडो नहीं करेगा। कुल मिलाकर यह संगत आश्रय का प्रश्न है। इसे इतना गौण माना जाता है कि अभी तक मेरी जानकारी में संगत के विषय पर कहीं कोई विशिष्ट चर्चा उपलब्ध नहीं है। संगत मूलतः अनुसरण करते हुए सहकारिता की विधा है। संगत करने वाला कलाकार स्वतंत्र रूप से भी कलाकार होता है या हो सकता है। उसके लिए भी सांगीतिक कौशल का उपार्जन भी अच्छे शिष्य की तरह ही करना पड़ता है। इसकी मूल भावना यह है कि कलाकार अपने कौशल से प्रमुख कलाकार के कौशल को उभारने तथा यादा रंजक बनाने के लिए कैसा धनात्मक कलात्मक योगदान एक प्रदर्शन के दौरान कर सकता है। यही एक अच्छी संगत का गुण भी है और आवश्यकता भी। संगत के बारे में सैमुएल एडलर ने लिखा है कि ‘प्राचीन ग्रीक की चर्चाएँ हमें बताती हैं कि उनके समय में वाद्य संगीत केवल नृत्य, नाटक या गीत या मानव की आवाा की प्रतिकृति के लिए इस्तेमाल होता था।’1
यानी संगत को आर्केस्ट्रेशन का प्राचीन ंफैशन कहा जा सकता है। जैसे ही संगीत की परफार्मेंस शुरू हुई होगी वैसे ही परफार्मर के प्रभाव को बढ़ाने के लिए संगत की शुरुआत हुई होगी। संगत की महत्ता पर प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल की एक कविता का यह अंश उद्घृत कर रहा हूँ -
 ‘मुख्य गायक की गरज में वह अपनी गूंज मिलाता आया है
 प्राचीन काल से गायक जब अंतरे की जटिल तानों  के जंगल में खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लांघकरचला जाता है
भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थायी को संभाले रहता है
जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था।’2
पाश्चात्य संगीत में भी आर्केस्ट्रेशन की शुरुआत के दौर यानी लगभग सन 1600 के पहले वाद्यों का उपयोग सिंफ वोकल म्यूजिक की संगत में ही होता था। 1600 से 1750 का दौर आर्केस्ट्रा के विकास का पहला दौर था, जिसमें आर्केस्ट्रा के स्थायित्व पर कार्य हुआ और उसके बाद उसमें प्रयोगवादी दृष्टि का समागम हुआ और इस तरह पाश्चात्य संगीत में संगत शनैः-शनैः आर्केस्ट्रेशन यानी वाद्य वृन्द संयोजन में तब्दील होती गयी। जाज म्यूजिक और ब्लूज़ में अभी भी संगत की रंगत ही हावी रहती है। जातीय शास्रीय संगीत में आज भी संगत का ही बोलबाला है।
वाद्यवृन्द रचना मूलतः पाश्चात्य संगीत की विधा है। प्रत्येक कला की तरह ही इसके लिए कौशल प्राप्त करना पड़ता है। वाद्यवृंद एक सामूहिक कला है, जिसमें हर वाद्य और वादक का कार्य निश्चित होता है। यह मुख्य रूप से हार्माेनी के सिद्धांत पर तैयार किया जाता है। बहुत पहले से सामूहिक कार्यक्रमों में गायकों या नर्तकों के साथ वादकों के समूह ग्रुप लीडिंग करते थे। ग्रुप लीडिंग का तात्पर्य है एक ही मेलोडी को सारे वाद्यों पर एक साथ बजाना। धीरे-धीरे जैसे-जैसे हार्माेनी के सिद्धांतों की स्थापना विकसित होती गयी, वैसे-वैसे ही ग्रुप  लीडिंग का उत्कर्ष आर्केस्ट्रा के रूप में होता गया, जिसमें हर वाद्य अपना स्वतंत्र विशिष्ट रूप एक समूह में बनाए रखते हुए पूरे समूह की प्रस्तुति में अपना योगदान बनाए रखने लगा। अठारहवीं सदी से हार्माेनी के सिद्धांतों को मूलरूप मिलना शुरू हुआ, जो उन्नीसवीं सदी में एक पर्याप्त विकसित रूप ले चुका था। आर्केस्ट्रा निश्चित रूप से पाश्चात्य सभ्यता की उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है।3  किसी मेलोडी या कम्पोजिशन को उच्चतम भावनात्मक सौन्दर्य के स्तर तक पहुँचाने के लिए वाद्यवृंद के इस्तेमाल की योजना को आर्केस्ट्रेशन या वाद्य वृन्द रचना कहा जा सकता है। आर्केस्ट्रेशन किसी कंपोजिशन का भौतिक रूप प्रदान करने की कला है। एक कंपोजिशन में श्रोताओं से संवाद करने की क्षमता का उत्कर्ष उसके आर्केस्ट्रेशन से ही तय होता है। यह पूर्णतः कंपोजर या आर्केस्ट्रेटर में सौंदर्यबोध पर निर्भर हैं। इसमें कंपोजर की वैयक्तिक चिंतन प्रक्रिया का शत-प्रतिशत योगदान होता है। हमारे यहाँ बहुत से संगीतज्ञों और संगीत प्रेमियों के बीच एक शब्द प्रचलित है ‘कान सेन’। सुनना भी एक कला है और सांगीतिक अभिरुचि पूर्णतः इस बात पर निर्भर है कि आप किसी चीा को कैसे सुनते हैं। सैमुएल एडलर की मान्यता तो यही है कि ‘वाद्यों और उनके कांबिनेशन के चुनाव में कान निर्णायक कारक होंगे।ल वाद्यवंृद संयोजन करने के लिए उपयुक्त शिक्षा और ट्रेनिंग की आवश्यकता होती है।
संगत और वाद्यवृंद संयोजन, दोनों ही विधाओं में विधान तो संगीत के ही काम करते हैं परन्तु ये विधान संगतकार या आर्केस्टेटर की रंगत के अनुरूप प्रकट होते हैं। इनकी वैयक्तिक निजता इस रंगत के लिए उत्तरदायी होती है। किसी भी कलारूप में कलाकार की यह निजता उसका वैशिष्ट्य होती है, जिससे वह दूसरे कलाकारों से इतर दिखाई पड़ता है। उसके दिलोदिमाग का संवेदनात्मक, ज्ञानात्मक स्तर उसके वैशिष्ट्य का रूप लेकर अवतरित होता है। संगीत के विधानों के साथ इस वैशिष्ट्य का समागम उस संगतकार या आर्केस्ट्रेटर का श्रोताओं के समक्ष सफलता के स्तर का निर्धारण करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संगत और वाद्यवृंद संयोजन में विधान तो संगीत के ही होते हैं परन्तु उस पर रंगत कलाकार के दिलो-दिमाग की ही होती है, इसीलिए हर प्रदर्शन या हर कम्पोजिशन एक अलग छाप छोड़ने का माद्दा रखती हैं।
जैसे-जैसे संगीत के विधान एक कलाकार के अंदर गहरे स्थापित होते जाते हैं संगत के लिए भी उसकी तैयारी होती चली जाती है। इसमंे शिक्षा के साथ-साथ प्रायोगिक संगीत की बैठकों के दौर और चर्चाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। पर यह पूरी तैयारी ‘इनफार्मल’ किस्म की ही होती है। आर्केस्ट्रेशन के लिए जिस तरह हर वाद्य के लिए स्वरलिपियों का प्रचलन पाश्चात्य संगीत में है वैसा कोई तीसरा हिंदुस्तानी संगीत में अभी तक सामने नहीं आया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि यहाँ सामूहिक प्रदर्शन करने का प्रचलन अपेक्षाकृत नहीं के बराबर है। जबकि इसके विपरीत पाश्चात्य संगीत में यह प्रभावशाली ढँग से बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। कुल मिलाकर हिंदुस्तानी संगीत की स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति ने इस विकास को अवरुद्ध करने का कार्य किया। किसी संगीत चर्चा में मैंने सुना था कि प्रसिद्ध तबलावादक सतीश तलवलकर ने संगत पर कुछ अच्छा लिखा है। हालाँकि मैं उस सामग्री तक नहीं पहुँच सका हूँ पर उत्कृष्ट संगतकार के साथ साथ एक स्वतंत्र कलाकार के रूप में उनकी विशिष्ट पहचान है इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में उनका लेखन निश्चित ही प्रभावी होगा।
संगत से वाद्यवृंद संयोजन तक पहुँचने की यात्रा को जितने कम समय में पाश्चात्य संगीत में तय किया गया है उसकी तुलना में बहुत कम समय में इस तरक्की को हिंदी फिल्म संगीत की विधा ने पाया है। इसका एक कारण यह भी माना जा सकता है कि पाश्चात्य संगीत में आर्केस्ट्रेशन का विकास तब तक पर्याप्त रूप से हो चुका था। हिंदी फिल्म संगीत ने केवल उसे आत्मसात किया, इसीलिए इस यात्रा में कम वक्त लगा। हालाँकि अरबी पर्सियन म्यूजिक का प्रभाव ही अस्सी के दशक तक हावी रहा। इसके पीछे की एक वजह यह हो सकती है कि पर्सियन म्यूजिक और इंडियन म्यूजिक में टोनल समानताएँ काफी हैं। हार्माेनी के सिद्धांतों का स्थायित्व और पर्सियन म्यूजिक का टोनल सामंजस्य हिंदी फिल्म संगीत के इस त्वरित विकास का मुख्य कारण बना होगा। इसके बाद सूचना प्रौद्योगिकी की मेहरबानी से सामान्य आदमी दुनिया के बाकी संगीत तक भी आसानी से पहुँच सका। इसीलिए आजकल के संगीत निर्देशकों में वल्र्ड म्यूजिक का प्रभाव अब प्रचुरता से मिलता है।
आर्केस्टेªशन पर अधिकांशतः काम केवल फ़िल्म  संगीत में ही हुआ है। इधर के सालों में जब से भारत में ंफ्यूजन म्यूजिक का प्रचलन शुरू हुआ तब से फोक और क्लासिकल म्यूजिक में आर्केस्ट्रेशन को लेकर कुछ प्रयोग शुरू अवश्य हुए हैं पर इस मूल धारा के मुख्य कलाकारों में इन प्रयोगों को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखाई पड़ता। यादातर कलाकार रूढि़वादी परंपरा से अलग हटकर सोचने की दिशा में आगे बढ़ने को लेकर खास दिलचस्पी नहीं दिखा पाए हैं।
इस दिशा में शीर्ष कलाकारों को सोचना होगा कि संगीत के विकास के लिए संगत और आर्केस्टेªशन को लेकर क्या नीति अपनाई जा सकती है जिससे हम अपनी परंपराओं पर कायम रहते हुए नई तकनीकों और साउंड-हार्माेनी के विभिन्न सिद्धांतों का समुचित समायोजन संगीत के लिए इस तरह कर पाएँ कि समय के साथ चलने वाली धारा हमें और हमारे संगीत को और अधिक आनंददायी और उत्तरदायी बना सके। हमें इस बात को गंभीरता से महसूस करना पड़ेगा कि बहती धारा ही पानी में जीवन का आनंद बनाए रखती है जबकि ठहरा पानी एक समय के बाद सड़ांध में बदल जाता है।
मुख्य बात पर लौटें तो संगत और आर्केस्ट्रेशन दोनों ही सामूहिक संगीत के भिन्न पहलू हैं। दोनों में ही, भारतीय परिप्रेक्ष्य में, नवाचार और प्रयोग किए जाने की आवश्यकता है। विशेषतः फोक और शाóीय संगीत में इसका कितना उपयोग किया जा सकता है इस पर चर्चा, विचार और मंथन की महती आवश्यकता है। रूढिव़ादिता से हटकर एक सोच हमेशा ही प्रगति को बढ़ावा देती है। मेरी समझ में भारतीय संगीत के परिप्रेक्ष्य में संगत और आर्केस्ट्रेशन को विस्तार से समझने की आवश्यकता है। विस्तारित समझ ही कालांतर में स्वीकार्यता में परिवर्तित हो सकेगी।
संदर्भ-
11. सैमुएल एडलर-  द स्टडी आॅफ आर्केस्ट्रेशन दूसरा संस्करण  1989
2. मंगलेश डबराल- आवाज़ भी एक जगह है।
3. सैमुएल एडलर- द स्टडी आॅफ आर्केस्ट्रेशन दूसरा संस्करण पृष्ठ 3
4. वही पृष्ठ 04


Tuesday, April 14, 2015

भारतेन्दु की रंगदृष्टि - डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी (An Article by Dr. Sevaram Tripathi on Bhartendu Harishchandra)

भारतेन्दु की रंगदृष्टि- डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी
(An Article by Dr. Sevaram Tripathi on Bhartendu Harishchandra- Bhartendu ki Rangdrishti)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पर विचार करते हुये हमें उनके युग की स्थितियों, जटिलताओं, अन्तर्विरोधों एवं संकटों को जानना-पहचानना आवश्यक है। वे सही मायने में अपने युग के निर्माता थे। डाॅ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय के शब्दों में ‘‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा का माध्यम अपनाकर साहित्य सृजन, सम्पादन, नाट्याभिनय और निबन्ध लेखन द्वारा देश में पुनर्जागरण (रिनेसा) शुरू किया। पुनर्जागरणकारी व्यक्तित्व अनिवार्यतः अनेकायामी अनेक क्षेत्रीय या बहुविषय स्पर्शक होता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति, जगह-जगह विधाओं और अन्य-अन्य प्रसुप्त चेतना परिसरो को जगाता है, नव चेतना का बीज वपन करता है और चिनगारियाँ छोड़ता है। ऐसा व्यक्ति मात्र विधा विशेष की दृष्टि से नहीं जांचा जा सकता क्योंकि वह एक पूरे युग चैतन्य का माध्यम या स्रोत बनता है। अतः वह युग प्रवर्तक होता है और अनेक विधाओं में नवीन प्रेरणा, नये विचार सूत्र, नये मूल्य पनपा देता है। भारतेन्दु ऐसे ही युग प्रवर्तक व्यक्ति थे। (आलोचना-79, पृष्ठ-51)
भारतेन्दु का रचनात्मक संघर्ष और कृती व्यक्तित्व मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा और हमारी सांस्कृतिक विरासत की पहचान का एक अत्यन्त समर्थ साक्ष्य है। उनकी संघर्षशीलता और जीवटता इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी हमारे लिये अभी भी ज़रूरी है और प्रासंगिक भी। उनकी रचनात्मक ऊर्जा, राष्ट्रवादिता, कला साधना और जीवन संघर्ष के कई आयाम है लेकिन उनकी केन्द्रीयता में सब तिरोहित हो गये हैं। डाॅ. राम विलास शर्मा ने उनका महत्व स्वीकारते हुये बहुत सही कहा है कि ‘‘साहित्य, पत्रकार-कला, देश सेवा-ये भारतेन्दु के लिये तीन अलग-अलग चीज़ें नहीं थी। उनका आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध था। भारतेन्दु शुद्ध कला के उपासक न थे। वह सोद्देश्य साहित्य के हामी थे इसलिये उनका व्यक्तित्व भी शुद्ध साहित्यकार का न होकर एक समाज सेवी कार्यकर्ता का था।’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृष्ठ-5, 6)
भारतेन्दु का समय काफी उथल-पुथल और आपाधापी का रहा है। स्वाधीनता आंदोलन की मशाल जल उठी थी। युगीन परिस्थितियों के अनुरूप अपनी सीमाओं के अंदर, कई अन्तर्विरोधों के चलते हुये भी जनजागरण की भावना, निरन्तर विकसित होती जा रही थी। भारतेन्दु की जिज्ञासु दृष्टि एवं सुचिन्तित तथा तार्किक बुद्धि ने न केवल गुलामी की अन्तःप्रकृति की पहचान की बल्कि संकीर्णताओं अंध विश्वासों, रूढि़यों और पाखण्डों पर व्यंग्य किया। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। ‘सब धन ठोयो जात विलायत उनके व्यंग्य में किसिम-किसिम की गूँजे-अनुगूँजे हैं जिनमें युग की पीड़ा और हाहाकार को अभिव्यक्त किया गया है। नये जमाने की मुकरी में वे लिखते हैं ‘‘भीतर-भाीतर सब रस चूसै। हँसि हँसि कै तन-मन-धन जूसे जाहिर बातन में अति तेज़। क्यों सखि सज्जन, नहिं अंग रेज ‘भारत दुर्दशा’ नाटक में भारत दुर्दैव से कहलाया गया है-
भरी बुलाऊँ देश उजाड़ू महंगा करकै अन्न
सबके ऊपर टिकश लगाऊँ धन है मुझको, धन्न
मुझको तुम सहज न जानो जी/मुझे इक राक्षस मानो जी।
देश की चिन्ता, पीड़ा और उसके खि़लाफ़ उठ खड़े होने की प्रबल आकांक्षा उनके कृतित्व का ज़रूरी उपादान है। उनके लेखे राष्ट्रीय आंदोलन भाषा आंदोलन आंदोलन, साहित्यिक, सांस्कृतिक आंदोलन, सामाजिक आंदोलन मात्र शगल नहीं थे बल्कि जीवन-मरण के सवाल थे। श्री बाल मुकुंद गुप्त ने उनके लेखन की तेज, तीखा और बेधड़क लेखन कहा है। भारतेन्दु पर विचार करते हुये मुझे अक्सर कबीर की याद आती है। उनकी भाषा और व्यंग्य की प्रकृति तथा डंके की चोट बात कहने के सिलसिले में। जैसे-कबीर कहते हैं - सुखिया सब संसार है। खावै अरु सोवे। दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवें। भारतेन्दु भी हमें इसी प्रकार संबोधित करते हैं - ‘‘आबहु सब मिलिकै रोबहु भारत भाई। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। वैसे हर जागरण के मूल में रुदन की प्रवृत्ति होती है। राम विलास शर्मा ने उन्हें हिन्दी नवजागरण और प्रगतिशील चेतना से जोड़ते हुये एक मार्के की बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। भारतेन्दु ने साहित्यिक हिन्दी को संवारा, साहित्य के साथ हिन्दी के नये आंदोलन को जन्म दिया, हिन्दी में राष्ट्रीय और जनवादी तत्वों को प्रतिष्ठित किया। (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृष्ठ 121)
मेरी समझ में भारतेन्दु का महत्व इस बात में भी है कि वे कोटे लिक्खाड़ भर नहीं थे। वे जनता के बीच गये। उनके सुख-दुख, उनकी आशाओं, आकांक्षाओं को उनकी समस्याओं को उन्होंने गहराई तक जानने- पहचानने का प्रयत्न किया और उनका निदान खोज़ने का उपक्रम भी किया। उन्होंने देखा कि समाज में कई प्रकार की विकट समस्यायें हैं जैसे निरक्षरता, ग़रीबी, रूढि़या, अंधविश्वास और अपने आपको न जान पाने का अहसास। इसलिये उन्होंने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानते हुये जन शिक्षण के रूप में भी इस्तेमाल किया। उनकी खूबी इस बात में भी परखी जा सकती है कि उन्होंने लोक प्रचलित कला माध्यमों, स्थानीय जन बोलियों और लोक प्रचलित विश्वासों का जीवन्त इस्तेमाल जनता की भलाई और बेहतरी के लिये किया।
उनकी रंग दृष्टि की पहचान इस रूप में की जा सकती है कि उन्होंने नाटक और दृश्य काव्य के बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। वे दृश्य काव्य को जीवन के लिए सबसे जीवन्त और उपयोगी माध्यम मानते हैं। उन्होंने स्वयं नाटकों में अभिनय करके उसकी शक्ति सीमा की पहचान और अर्थवत्ता की खोज की थी। उनका ‘‘नाटक अथवा दृश्य काव्य’’ नामक दीर्घ निबन्ध उनके अन्तर्जगत की बेचैनी को सूचित करता है। वे लिखते हैं - ‘‘नाटक लिखना आरम्भ करके जो लोग उद्देश्य वस्तु परम्परा से चमत्कारजनक और मधुर अतिवस्तु निर्वाचन करके भी स्वाभाविक सामग्री परिपोष के प्रति दृष्टिपात नहीं करते उनका नाटक, नाटकादि दृश्य काव्य लिखने का प्रयास व्यर्थ है क्योंकि नाटक आख्यायिका की भांति श्रव्य काव्य नहीं है।’’ वे आगे लिखते हैं - ‘‘नाटक में वाचालता की अपेक्षा मितभाषिता के साथ वाग्मिता का ही सम्यक आदर होता है। नाटक में प्रपंच रूप से किसी भाव को व्यक्त करने का नाम गौण उपाय है और कौशल विशेष द्वारा थोड़ी बात में गुरुतर भाव व्यक्त करने का नाम मुख्योपाय है। थोड़ी-सी बात में अधिक भाव की अवतारणा ही नाटक जीवन का महौषध है।’’
‘नाटक’ नामक इस प्रदीर्घ निबंध में उनका स्पष्ट मंतव्य है कि पुराने पड़ गये नियमों में परिवर्तन होना चाहिये। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है ‘‘मनुष्य की परिवर्तनशील वृत्तियों को ध्यान में रखकर नाटक लिखें।’’ क्रांति और नवजागरण, संस्कार और शोधन की सृष्टि से जनता के लिये वह नाटक को सबमें सशक्त माध्यम मानते थे। उनका नज़रिया यह भी था कि दृश्य काव्य और साक्षात्कार का माध्यम होने के कारण नाटक की प्रभावशीलता बढ़ जाती है। भारतेन्दु ने कई प्रकार के नाटक लिखे हैं। मौलिक, रूपांतरित और अनूदित। इन सभी में सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक विषयों में उनकी नई दृष्टि का न केवल पता चलता वरन् शिल्प और शैली की विविधता के भी दर्शन होते हैं। उनके मौलिक नाटकों में भारत जननी वैदिकी हिंसा-हिसा न भवति, प्रेम जोगिनी, विषस्या विषमौषधम् चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी और सती प्रताप प्रमुख है।
भारतेन्दु के मौलिक नाटकों में कथ्य की नवीनता विषयों की विविधता और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा के सूत्र हैं। विषय विषमौषधम में उन्होंने देशी राजाओं की दुर्दशा का चित्रण किया है। वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति में भारतेन्दु की धर्म के नाम पर की जाने वाली पशुबलि का विरोध करते हैं। भारत दुर्दशा में आयेगी। राज में भारत की खराब स्थिति एवं उसका निरन्तर दाम को चित्रित करते हैं। नील देवी में भारतीय नारी के आदर्श का प्रतिपादन करने का प्रयास करते हैं। अनेक नाटकों में सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति के साथ युग की समस्याओं को जनता तक पहुंचाने का उद्यम है। उनके नाटक जनकल्याण की भावना से लवरेज है। इन नाटकों में अतीत के गौरव का प्रतिपादन एवं राष्ट्रीय जागरण के बहुआयामी स्वर हैं।
हिन्दी में आचार्य भरत मुनि की तरह भारतेन्दु की प्रतिष्ठा है। उसकी मुख्य वजह यह है कि भारतेन्दु ने पहली बार बड़ी तीव्रता से नाटक की माध्यमगत, कलागत विशिष्टताओं की ओर ध्यान दिया और सामूहिक तौर पर योजनाबद्ध ढंग से नाटक और रंग कर्म को सक्रिय आंदोलन के रूप में पेश किया। उन्होंने नाटक और रंगमंच के परस्पर सम्बन्धों की अनिवार्यता पर जोर देते हुये रंग कर्म का शुभारम्भ और विस्तार किया। नाट्य मण्डलियों की स्थापना करके उन्होंने नाटक को लोकप्रियता प्रदान की। नाटक, रंगमंच और रंगकर्म के सामने जो अनेक मुकिश्ल सवाल थे मसलन नाट्य लेखन, अनुवाद, प्रदर्शन, राष्ट्रीय चेतना का विकास, लोक रूचि का परिष्कार, पारसी थियेटर के खिलाफ संघर्ष। ना ही नाट्य परम्परा का विकास, नाट्य शिल्प की नई योजना, नये रंगमंच की स्वतंत्र परम्परा को विकसित करने के लिये वे जीवनपर्यन्त संघर्षशील रहे। वे मानते थे कि ‘कला वास्तविक उन्नति का आधार है।’ उनकी मुख्य चिन्ता यह थी कि हिन्दी का कोई रंगमंच नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिये उन्होंने अनेक प्रयास किये।
मैं जब पढ़ता था तो हमारे पाठ्यक्रम में भारतेन्दुजी का एक प्रहसननुमा नाटक ‘अंधेर नगरी’ था। पढ़ने में यह अत्यन्त सहज है। इसकी जो चीज सबसे अधिक आकर्षित करती है वह है इसकी भाषा, इसकी जीवंतता, इसकी रवानगी और हास्य व्यंग्य का बेहद आत्मीय पुट। यह नाटक समय के साथ-साथ निरन्तर अर्थवान होता जा रहा है। एक सौ पच्चीस-तीस साल से ज्यादह इसको लिखे हुये हो गये लेकिन इसका कथ्य और खिलदड़ापन अभी भी नितान्त उपयोगी है। इसकी मार इसका व्यंग्य इसकी स्पिरिट आज भी नित नूतन है। इसकी जिस लहजे का इस्तेमाल हुआ और इसके विकास में जो खान की और ताजगी उसको कोई जवाब नहीं। उसकी अर्थ छवियां बेमिशाल है। ‘अंधेर नगरी’ पर विचार करते हुये डाॅ. राम विलास शर्मा का यह कथन बरबश याद आता है। कि ‘‘अंधेर नगरी अंग्रेजी राज का ही दूसरा नाम है लेकिन यह नाटक ‘‘अंग्रेजी राज्य की अंधेर गर्दी की आलोचना ही नहीं वह इस अंधेर गर्दी को खत्म करने के लिये भारतीय जनता की प्रबल इच्छा भी प्रकट करता है। इस तरह भारतेन्दु ने नाटकों को जनता का मनोरंजन करने के साथ उसका राजनीतिक शिक्षण करने का साधन भी बनाया। इसके गीत और हास्य भरे वाक्य लोगों की जवान पर चढ़ गये हैं और भारतेन्दु की प्रहसन कला यहां अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती हैं।’’
भारतेन्दु अकेले ऐसे नाटककार हैं जो नाटक, नाट्यकला, रंगमंच, नाट्य भाषा, नाट्य समीक्षा, रंगकर्म के प्रति चिन्तित और रंगमंच के प्रति निष्ठावान थे। रंगकर्म, रंगमंच नाटक के विविध कला रूपों और नाट्य समीक्षा-इन सभी आयामों के प्रति उनका ऐतिहासिक योगदान है। भारतेन्दु जी की नाट्य साधना की ही यह देन है कि आज का हमारा रंगमंच, रंगकर्म और रंग कौशल जनता से सीधे जुड़ा है। हालांकि हमने युग की परिस्थितियों के अनुकूल नये-नये प्रयोग किये हैं और इन प्रयोगों का सिलसिला अभी भी जारी हैं। भारतेन्दु दिन-ब-दिन प्रासंगिक अर्थवान और महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। अपने छोटे से जीवन में उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दी जनता की जो सेवा की है। साहित्य की विभिन्न विधाओं को खुलकर खेलने का अवसर दिया है। उनके इस ऐतिहासिक अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

Friday, February 27, 2015

situation is a seed of tune in film music: Kersi Lord


Kersi Lord: Veteran Bollywood Musician and Music Arranger
Edited Interview with blogger Music composer Abhishek Tripathi
(From 1948 till 2000, Kersi Lord didn’t work with Husnalal – Bhagatram, Khemchand Prakash, Shyam Sundar, otherwise played with all other music composers, as he told in interview. He worked in films like Shalimar, Dharmatma, Sathi etc with music directors such as Naushad, Usha Khanna, RD Burman, SD Burman etc. His famous song in which he played Accordian is ‘Roop Tere Mastana’ from film ‘Aradhana’. His one of the peculiar song is ‘Tum Jo Mil Gaye Ho’ from film ‘Hanste Zakhm’. This interview was held at Mumbai on 18th September, 2014. The interview was based on Chords, Harmonies, Orchestration and arrangement, Tune making, Film Music production and all related aspects of bollywood.)

Abhishek Tripathi - My first question is what is a chord for a musician?
Kersi Lord - I can let you clear in a very simple way, melody is written horizontally and chord is written vertically.
Abhishek Tripathi - Being an arranger and musician, whats your own aesthetics about chord while making a tune or arranging for a tune.
Kersi Lord - Here people do the melody and starts chord side by side, but according to me this is not correct because chord doesn’t go with the all note of the melody, chord can make a different progression, different pattern altogether. When I do this, I try to do what have not been done before. I arrange the sounds different by anybody else. Not the same formula goes every time.
Second most important thing after, melody, is the counter point or what you call obbligato. Sometimes obbligato also has to make some nice melody. Sometimes I feel, due to this particular chord, I am not getting the correct obbligato. I will change the chord. Most important thing in chord is nobody bothers about chord progression. You will walk with right foot, and then the next must be left foot. You can’t have two right foots. So the progression is very important. Only pianist, who played Jazz and Jazz guitarist knows the correct chord progression. People who have not studied harmonies properly, they won’t know. Sometimes I notice, chord goes like pum-pum-pum (sings) that is not right, you don’t get big body with this. Next most important thing is bass line after melody. So progression is not important than chords. Sometimes chords have to results in some chord only. That is called resolution of chord.
Abhishek Tripathi - For which music directors you worked.
Kersi Lord - From 1948 till 2000, Husnslal – Bhagatram, Khemchand Prakash, Shyam Sundar, I dint worked with these three, otherwise played with all others.
Abhishek Tripathi - Who is the music directors for whom you have arranged the music.
Kersi Lord - I first did it with Naushad Saheb. I had very close relation with him. I played for his backgrounds. First he gave me a scene to write for a background. That was training for his next film Sathi. He wanted a new image. If you see Sathi, you won’t get any traditional harmony. It was changed. Whenever I did arrangement, I tried ever to do new and what not have been done before.
We were used 5 songs in sometimes period, so all the time I used to erase my previous memory. Previous to Naushad Saheb, I did background music for Usha Khanna also, 3-4 films with Kalyanji, only background mostly. Pancham’s Shalimar, I did whole background music for him. That was also very different.
Abhishek Tripathi - When you worked with R D Burman or Naushad or anybody else, how you managed your own aesthetics.
Kersi Lord - Before you go for anything, you have to discuss with music director, who is the actor, what is the situation. I am using this kind of instruments, will you mind it. If he is agreeing, you can do. When I was doing background for Dharmatma of Firoz Khan, a childhood friend of mine, for a scene, I asked that I want to use the Trumpet; it was a scene where somebody was going to die, they said, for this scene? I said yes- and I will give a nice sad in orchestra part. They were all agree, with permission of them, do the work. Actually it depends on melody, situation. And views of music director are most important. Always go forward with their inputs.
Abhishek Tripathi - How learning affects aesthetics.
Kersi Lord - That depends upon individuals. I don’t want to spoil something then I won’t. And someone wants to spoil, he will. Some people will spoil without realizing also.
Abhishek Tripathi - What are the factors which affects aesthetics?
Kersi Lord - It is all about way of treating the things.
Abhishek Tripathi - What is the process of making a tune for film?
Kersi Lord - That is situation which is a seed of tune. On the situation we grow our ideas. In pop album, we don’t have to think about situation. Film music is all about situation.
Salil Chaudhary was fond of western classical. Shankar Jaikishan was oriented to Middle East. So there was a cross country cultural mix up in music. When I did music for a play Tughlak, my cousin was saying – Kersi, are you mad, is it music? And the times of India wrote- “Strange but very appropriate music by Kersi Lord”. When I was working many people use to say me mad and after 40 years, people are now giving credit to my work.
Abhishek Tripathi - How you see the development of orchestration since you started.
Kersi Lord (About arrangements and development of orchestrations) - You are naming music directors but they used to select arrangers. If arranger sounds different from music director, then it would have disastrous. Sebastian was proper literate, Anthony Gonzalves was more learned. I had played with him in symphonies which he composed. Sebastian was very fast, he worked for O P Naiyar, Shankar Jaikishan and Salil Chaudhary. It does not look like it is arranged by Sebastian. Every place he is different, seems like 3 different persons. This is what an arranger can do. Johny Gomez has also worked very well with C Ramchandra, Chitragupt, but he shown his own style everywhere.
Abhishek Tripathi - Does any chord shows certain unanimous mood.

Kersi Lord - No, but minor chord is more romantic. Romantic song sounds good in minor key. When you play a chord, use of their inversions is also effective. If I am placing a chord in cello then I will place like Sa Pa Ga. Ga will go in next octave. Because close notes in bass harmony sounds woovy. I will spread it out. Close harmonies are not allowed in bass. In jazz, they use chord with different root note also like Cm/F.

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