Sunday, October 16, 2011

जिस्म की बात नही थी, उनके दिल तक जाना था (In Memory of Jagjeet Singh)

लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है। यकीनन हर कलाकार को दिलों तक उतरने में वक्त तो लगता ही है, पर जिस तरह का मकाम जगजीत सिंह ने हमारे दिलों में बनाया है, उस मकाम से अलग होना हमारे लिए जल्दी नही संभव होगा। वो एक ऐसी आवाज़ थे जिससे गायकी की एक धारा चलती है जिसे हम लोग याॅनर बोलते है। भारत में ग़ज़ल गायकी को स्थापित करना ही उनकी महानता नही थी, महानता उनकी यह है कि उनके जीते जी लोगों ने उनको चाहा उनको फालो किया उनको कापी भी किया। आज अनगिनत लोग है, छोटे बड़े हर स्तर पर, जो उनको गाकर नाम और पैसे कमा रहे है।
जिस्म की बात नही थी उनके दिल तक जाना था..... यह बात यकीनन जगजीत सिंह के कलारूप पर लागू होती है। उनकी कला फ़ौरी तौर पर नही बल्कि रूहानी असर से काम करने वाली थी। जिसने भी उन्हे एक बार सुना, फिर सुनता ही रहा हमेशा। कितने ही लोगों को मैं जानता हूँ जो उन्हे सुनते सुनते श्रोता से अध्येता, विद्यार्थी, गायक, संगीतकार बनते चले गए। ये उनकी रूहानियत से भरी आवाज़ का ही असर था।
सत्तर बरस के जगजीत सिंह में जग जीत लेने का वो माद्दा था कि यदि सत्तर अरब की भी आबादी दुनिया की होती तो भी वो बस एक बार अपनी मख़मली, दानेदार, दमदार आवाज़ बिखेरते और हर सुनने वाला उनका हो जाता। हमारा सौभाग्य, जो हमने उन्हें सुना और उनके समय में दुनिया में रहे। उनकी आवाज़ का प्रोजेक्शन उनकी जो इमेज बनाता था, उनका व्यक्तित्व भी ऐन वैसा ही था। उनकी गाई ग़ज़लों की धुनों की तरह सरल लेकिन अर्थ पूर्ण, ग़ज़ल की बात की तरह गंभीर और असरकारी। सौम्य, आकर्षक, आभापूर्ण व्यक्तित्व। मैंने उन्हे देखा, उन्हे छुआ, उनसे बात भी की। कई बार।
दिल तक जाने के लिए लंबी दूरी तय करने की उनकी तैयारी मैंने उनकी ज़बानी सुनी थी। हुआ यूं था कि मैं मुम्बई में अपने संघर्ष के दिनों में उनके ही स्टूडियो संगीत में जाता था, वरिष्ठ संगीतकार, अरेंजर अमर हल्दीपुर साहब के पास। लगभग रोजाना। जगजीत जी कम ही आते थे। एक दिन मैं पहुंचा। वे सामने ही बैठे थे। तभी रिकार्डिंग रूम से निकलीं पाष्र्वगायिका मधुश्री, जिन्होनें बाद में फिल्म चिंटू जी के लिए मेरा संगीतबद्ध किया हुआ एक गाना भी गाया। उनसे चर्चा के दौरान मधुश्री ने उनसे कुछ ज्ञानार्जन की विनती की तो जगजीत जी सरलता से बोले- ‘‘मैं लगातार सुन रहा हूँ तुम्हारे गाने। बहुत अच्छा गा रही हो..... लोगों ने कुछ ही गाना सुना है अभी मेरा। लेकिन ये जो असर है वो ऐसे है कि मेरे पास जितना है उसे मैं रोज़ गाता हूँ अपने लिए। आज भी। मतलब अपना रियाज़। जितना भी सीखा है रियाज़ खूब करो उसका। शिद्दत से करो। दिल से करो। असर अपने आप होगा।’’ ये बात मैंने गांठ बांधकर रख ली है। हमेशा
 के लिए। तो ये बात थी! जो उनकी आवाज़ में असर पैदा करती है। लोग कहते है कि उनकी निजी जि़न्दगी के उतार चढ़ाव, त्रासदियों ने ये असर उनके अंदर पैदा किया। लेकिन असल बात तो यही है जो उन्होनें मधुश्री से कही। और अपने शुरूआती दिनों से ही वे खूब तैयार नज़र आते थे। हां ये बात मानी जा सकती है कि इन त्रासदियों ने उस असर को और धारदार बना दिया।
उनके गुजर जाने की बात, उनकों ब्रेन हैमरेज के बाद लगभग अवश्यम्भावी हो गई थी। पर फिर भी इस बात पर सहसा विश्वास करने को मन नही करता। वो हमेशा रहेगें हमारे बीच। हां एक बात जरूर है कि ऐसी शख्सियत अब आसानी से दोबारा नही आएगी। वो सिर्फ एक उम्दा गायक ही नही थे बल्कि एक बेहतरीन संगीत निर्देशक और अच्छे मार्गदर्शक
 भी थे। साथ ही साथ ग़ज़ल की गहरी समझ रखने वाले। उनकी गायी अधिकांश ग़ज़लें कंटेन्ट से भरपूर है। कितने ही कलाकारों को उन्होनें स्टेज व रिकार्डिंग्स में अवसर दिये हैं। अब वो आवाज़ खामोश  हो गई है जो कभी कहती थी- ‘‘फूलों की तरह लब खोल कभी, ख़ुशबू की ज़बां में बोल कभी। अल्फ़ाज़ परखता रहता है, आवाज़ हमारी तोल कभी।’’ पर जगजीत सिंह की आवाज़ को न तो तोला जा सकता है और ना ही उसका कोई मोल लगाया जा सकता है। वो अपनी तरह की अकेली आवाज़ है। ये वो बेमोल आवाज़ है जिसने बड़े से बड़े शायरों को हमारे सामने सजीव किया। अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा। मनोभावों और स्थितियों की सटीक फिल्म की तरह। आम आदमी की जिंदगी को उन्होने बख़ूबी गाया। कितनी ही प्रेम कहानियां उनकी ग़ज़लों से शुरू हुईं और आदमी की कितनी ही त्रासदियां उन्होने बयां की। चाहे तब, जब वो गा रहे हों- ‘‘ये तेरा घर, ये मेरा घर, ये घर बहुत हसीन है।’’ या फिर तब, जब उन्होनें गाया हो- ‘‘अब मैं राशन की क़तारों में नज़र आता हूं।’’
अपने बेटे की अकाल मृत्यु के बाद, जब उनकी जीवनसंगिनी चित्रा सिंह ने गाना ही छोड़ दिया, तब भी जगजीत जी की भाव पारगम्यता और उसे अभिव्यक्त करने की धार बढ़ती ही गई। और इस धार ने श्रोताओं तक को उस भाव से सराबोर कर दिया। तब भी निजी जिंदगी को उन्होने अपनी कला के आड़े नहीं आने दिया। तब भी वे गाते ही रहे। यहां तक कि 20 सितम्बर 2011 को उनकी अंतिम मंचीय प्रस्तुति हुई और जिस दिन उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ उस दिन भी वो गुलाम अली के साथ प्रस्तुति करने जाने ही वाले थे। इतनी त्रासदियों के बाद भी, ये उनका संगीत के लिए जुनून और समर्पण ही था कि वो तो सब झेल कर भी गाते रहे- ‘‘अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफर के हम है, रूख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम है।’’ ये साबित करता है कि संगीत के लिए उनकी रूमानियत की कोई हद नही थी। कहते हैं कि वो अब भी इतने खुशमिजाज थे कि स्टेज पर समय समय पर कितने ही लतीफें सुनाते रहते थे।
हमारी ग़ज़ल गायकी को उन्होनें परम्परागत शैली से अपनाते हुए आज के नए दौर की नई साउण्ड टैक्नालाजी से रूबरू कराया और संगीत में हो रहे वैष्विक प्रयोगों को भी आत्मसात् किया, और एक नई शैली को स्थापित किया। दुनिया की अलग अलग शैलियों का मिश्रण भी किया उन्होने। और देखिए कि आज ग़ज़ल गाने वालों में ज्यादातर उन्हे ही फालो करते मिलेगें। चाहे वो पुराने समय के परम्परागत् जगजीत हो या फिर आज के समय के आधुनिक जगजीत। हां उन्होने ग़ज़ल के कन्टेंट से कभी समझौता नही किया और उनकी 
ग़ज़लों में हमेशा एक संदेश  समाहित रहा। आज के दौर में पापुलर फिल्म संगीत और शास्त्रीय संगीत से हटकर ग़ज़ल गायकी में इतना बड़ा मुकाम हासिल करना कोई आसान बात नही है। पर वास्तव में जगजीत ने जग जीत लिया। अपनी आवाज़ से। अपनी गायकी से। अपनी ग़ज़ल से। कम लोगों को मालूम है कि खयाल गायकी, टप्पा, और ध्रुपद गायकी की कमाल की समझ थी उनमें। फिर भी इतनी कमाल की सरल और सुगम्य संगीत रचनाएं कि एक आम आदमी जिसने कभी संगीत न जाना हो, वो भी उनकी ग़ज़लों से जुड़ जाता था। वो इतने बड़े कलाकार थे कि मास और क्लास दोनों को संतुष्ट करना उन्हें अच्छी तरह आता था।
इतना कुछ लिख गया। बस उन्हें सोचते-सोचते। पर फिर भी लग रहा है कि -
‘‘मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द के जाने को कौन। आवाज़ों के बाज़ारों में, ख़ामोशी पहचाने कौन।’’
दुनिया चलती रहेगी। 
ग़ज़लें भी गायी जाती रहेगीं। पर बस अब जगजीत सिंह नहीं होगें। आने वाली ग़ज़लों को अब जगजीत सिंह की आवाज़ नही मिल सकेगी। और लोगों को अपना ही दर्द समझाने वाला, महसूस करा सकने वाला शख़्स ना मिल सकेगा। जगजीत जी के जाने पर मैनें किसी को कहते सुना कि ग़ज़ल अब अनाथ हो गई। वाकई अब ग़ज़ल क्या होगी। क्या जाने। आने वाला वक्त देखेगा। ग़ज़ल जब तक रहेगी, जगजीत सिंह का एक अलग मकाम उसमें हमेशा रहेगा।




मेरे कुछ मित्र उनके जाने से गहरे सदमें में हैं। ये वही मित्र हैं जिन्होने जगजीत सिंह की बदौलत ही संगीत क्षेत्र में पदार्पण किया। अनेक दिलों में उनकी आवाज़ गहरे पैठ कर चुकी है। और माने या न माने, पर जगजीत सिंह की ग़ज़ल हिन्दुस्तान ही नहीं दुनिया की ग़ज़ल गायकी की स्वर्ण - कृतियों में हमेशा शामिल की जाएगी। उनके जाने के गम में सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए हर आदमी अपना दुःख बयान कर रहा है। मेरे फेसबुक मित्रों में से कुछ लोगों की महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां कुछ इस तरह से आईं है -

व    आज का दिन बेहद कयामत है...क्या कहूँ कुछ मन ही नहीं है कहने का...जगजीत साहब आप तो हमारे दिल में हैं।
विलास पंडित (शायर)
व    जगजीत जी आपने तरकीब के गाने- ‘‘कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है, तुमको भूल न पाएगें अब ऐसा लगता है।’’ को जो सुर दिये थे और जो दर्द दिया गाने को, आपकी आवाज़ ने गाने को चार चांद लगा दिये। यू विल बी मिस्ड, मे योर सोल रेस्ट इन पीस।
आदेश श्रीवास्तव (फिल्म संगीतकार)

व    
ग़ज़ल सम्राट के विदा होने का बहुत अफसोस है उनकी कमीं पूरे ब्रह्मांड में कोई पूरी नहीं कर सकता। संगीत प्रेमियों की ओर से उन्हे श्रद्धांजलि देता हूँ। भगवान इस महान् शख्सियत की आत्मा को शांति दे और हमें यह सदमा सहने की हिम्मत।
अखिलेश तिवारी (स्टेज सिंगर)
व    इक आवाज मुझसे जुदा हुई ..... जाते जाते मुझे बहरा ही कर जाता ....... ए ब्लैक डे इन मोनिंग.... रेस्ट इन पीस जगजीत सिंह
बसंत सिंह (कवि गायक एवं संगीतकार)

जगजीत सिंह जैसी शख्सियत को बयां करने का माद्दा मेरे लफ़्ज़ों में नहीं है। बस इस बात के साथ विराम लेता हूँ-
खुद को बयान करना, इतना आसान नहीं
हर दर्द बयान करना, तुमसे सीखूंगा।

अभिषेक त्रिपाठी

Friday, August 26, 2011

कलात्मक विकास के लिए रचनात्मक मंच - "प्रथा" का उदघाटन (Rewa)


कला का उद्देश्य जीवन की रचना

प्राप्स एन थीम्स इवेंट मैनेजमेंट सोलूशंस और सुर श्रृंगार संगीत अकादमी रीवा के संयुक्त तत्वावधान में शेम्फोर्ड स्कूल रीवा में कलात्मक विकास के लिए रचनात्मक मंच - प्रथा का उदघाटन ,२० अगस्त २०११ को शाम ६ बजे, अनेक संस्कृति कर्मियों की मौजूदगी में संपन्न हुआ. फोरम के सह संयोजक और संगीतकार प्रवाल शुक्ल ने सभी अतिथियों का अभिवादन किया और कहा कि हमारे इस्प्रयास में सबकी भागीदारी का होना ज़रूरी है और हम आशा करते हैं कि हम इस फोरम के मध्यम से कला का विकास करने में अपनी भूमिका सिद्ध कर सकेंगे.

कला के क्षेत्र में आधारभूत संरचना तैयार करने और विकसित करने के लिए गठित फोरम प्रथा की कार्यप्रणाली और विचारधारा के लिए अपने आधार वक्तव्य में संयोजक अभिषेक त्रिपाठी ने कहा कि हम सारी कलाओं के अन्तःसम्बन्धों को विक्सित करने और उनके विकास के लिए यह नियमित आयोजन श्रृंखला - प्रथा आरम्भ कर रहे हैं. इसमें पाक्षिक समयांतराल में गतिविधियाँ संचालित होंगी. इसमें सुनियोजित गोष्ठियां, एवं विचार विमर्श जैसी अनेक गतिविधियाँ शामिल होंगी. यह किसी संस्था का फोरम ना होकर सम्पूर्ण कला जगत से सम्बद्ध कलाकारों और कला प्रेमियों का रहेगा. वरिष्ट साहित्यकार श्री चन्द्रिका चन्द्र ने आरंभिक वक्तव्य में कहा कि इस मंच के नाम में हमारी प्रथाओं का सार्थक समागम प्रतिध्वनित होता है.

हिंदी साहित्य के विद्वान प्रोफेसर और साहित्यकार डॉ सेवाराम त्रिपाठी ने अपने महत्वपूर्ण उद्बोधन में कहा कि कलाओं का सबसे बड़ा उद्देश्य जीवन को रचना, हमें उदात्त बनाना और हमें आध्यात्म की ओर ले जाना है. कलाओं के माध्यम से बड़े विचार पैदा किये जा सकते हैं. जो लोग कलाओं के बारे में संकीर्ण विचार रखते हैं और कला की घेराबंदियों में संलग्न हैं , हमें उनसे भी संघर्ष करने की आवश्यकता है.

विख्यात कथाकार डॉ विवेक द्विवेदी अपने नजरिये को बताते हुए बोले कि दुनिया में साहित्य और कला ही जोड़ने का कार्य करते हैं. प्रसिद्द चित्रकार डॉ मिनाक्षी पाठक ने प्रथा की ज़रूरत बताते ह्येन बोलीं कि कला डिप्रेशन और तनाव से दूर जाने का रास्ता बताती हैं और हमे अपनी कलाओं के मूल में लौटने की आवश्यकता है. वरिष्ट रंगकर्मी श्री हरीश धवन ने कहा कि आज के माहौल में कला के क्षेत्र से हम की भावना गायब हो रही है और यह फोरम इस हम की भावना को आगे बढ़ा कर कलाओं की आधार संरचना पर अपनी गतिविधियाँ संचालित करने के लिए शुभाकांक्षाओं का पात्र है. प्रोफेसर दिनेश कुशवाहा ने कहा कि विचार एक अनमोल चीज़ है उसी तरह कला भी अनमोल हैं और इस फोरम का विचार खूबसूरत है. इस अवसर पर कवि शिव शंकर शिवाला, लायन महेंद्र सर्राफ, लायन सज्जी जान , डॉ नीलिमा भरद्वाज ने भी अपने विचार व्यक्त किये.

पूरे कार्यक्रम का संचालन रोचक बनाये रखते हुए युवा कवि श्री सत्येन्द्र सिंह सेंगर ने अपनी कुछ पंक्तियाँ प्रथा फोरम के गठन पर इस प्रकार सुनायीं-
ये प्रथा.. इंसानियत की..ये प्रथा..ईमान की
ये प्रथा..है साधना की, ये प्रथा..सम्मान की.
हम रहें या ना रहें.. पर, देश ये... ज़िंदा रहे
ये प्रथा..आराधना की, ये प्रथा..उन्वान की ..
इस धरा के स्वर में शामिल, 'विश्व मानव एकता'
ये प्रथा है... राम जी की, ये प्रथा... रहमान की ..


इस कार्यक्रम के दूसरे चरण में रीवा के संगीतकारों की ओर से कुछ लघु प्रस्तुतियां की गयीं. सुगम संगीत की गायिका और टीवी सीरियल वोइस ऑफ़ इंडिया में शामिल रही कु. मुकुल सोनी ने ३ गज़लें प्रस्तुत करके माहौल को संगीतमय कर दिया. इसके बाद श्रीमती तारा त्रिपाठी ने भूले बिसरे लोकगीतों की प्रस्तुति कर लोक गायन की परंपरा का सम्मान बढाया. क्षेत्र के सुविख्यात गायक डॉ राजनारायण तिवारी ने राग मेघ में एक बंदिश और तराना गा कर श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर दिया. साथ ही उन्होंने कुछ गज़लें भी सुनाई. कार्यक्रम के अंत में पन्ना शहर से आये उस्ताद निसार हुसैन खान साहब के योग्य शिष्य श्री गौरव मिश्र ने एकल तबला वादन करते हुए ये साबित कर दिया कि हमारे शाश्त्रीय संगीत की जड़ें कितनी गहरी हैं.

शहर के अनेक गन मान्य नागरिक और संस्कृति कर्मी इस कार्यक्रम में उपस्थित थे. इनमे विशेष रूप से चन्द्र शेखर पाण्डे, विवेक सिंह , शुभा शुक्ल, विभु सूरी, के के जैन, कृष्ण कुमार मिश्र और शेम्फोर्ड स्कूल के स्टाफ के सदस्य शामिल रहे. सहयोगियों में अरुण विश्वकर्मा, अभिनव द्विवेदी, अतुल सिंह, अमन शुक्ल, प्रीती दीक्षित, प्राची सराफ, मुदित, शांतनु शुक्ल, आदि उपस्थित थे..

Friday, August 19, 2011

प्रथा- कलात्मक विकास हेतु रचनात्मक मंच (शेम्फोर्ड स्कूल , बोदा रोड in Rewa)


प्रथा- कलात्मक विकास हेतु रचनात्मक मंच

कल २० अगस्त २०११ को शाम ६ बजे
शेम्फोर्ड स्कूल , बोदा रोड , रीवा में

पहली बैठक 
जिसमे एक नयी परंपरा की शुरुआत कर रहे हैं हम
हर कला से जुड़े, हर कलाकार और संस्कृति-कर्मी
और हर कला प्रेमी का अपना मंच होगा कला की सार्थकता के लिए 
इसमें होगी हर १५ दिन में एक बैठक - जिसमे हर बार किसी नए विषय पर होगी
चर्चा, प्रस्तुतियां, मंथन, और भी सार्थक गतिविधियाँ.
एक सकारात्मक सोच के साथ
कल होगी इस मंच की स्थापना के विषय पे चर्चा
साथ ही कुछ लघु संगीत प्रस्तुतियां

आप सादर आमंत्रित हैं 
अपने इष्ट मित्रों और कला प्रेमियों के साथ
कला को ज्यादा से ज्यादा सार्थक रूप में आत्मसात करने के लिए
ये आपका अपना मंच है और आप इसके आयोजक हैं..
सादर 
अभिषेक त्रिपाठी
प्राप्स एन थीम्स इवेंट मैनेजमेंट सोलुशंस 
एवं 
प्रवाल शुक्ल
सुर श्रृंगार संगीत अकादमी 
रीवा 

Monday, August 8, 2011

क्यूँ कर डरना: My new poem ( Nayi Kavita)


एक नया दुस्साहस,
आपके सामने है,गलतियों के लिए क्षमा करेंगे, छंद में नया हूँ................

क्यूँ कर डरना

कर, ना करना,
क्यूँ कर कहना.
ये फितरत है,
अपना गहना.

शाम हुई अब,
कल फिर उड़ना.
पंछी का घर,
झूठा सपना.

छंद ना जानूं
कैसे कहना.
फिर-फिर सोचा,
क्यूँ कर डरना.


अंतर्मन तुम,
अपनी सुनना.
आगत क्या हो,
खुद ही बुनना.

जब-जब टीसे
मन का कोना.
तब खुद सावन,
बन कर  बहना.
copyright@abhishek tripathi 2011

Sunday, July 24, 2011

मेरी कविता: सपने ( My poem: Sapne)

मेरी कविता: सपने

आज रात जो देखे सपने
उन सपनों में हम थे तुम थे
सपनों में भी इक गठरी में
हमने सपने बांध रखे थे

सपनों में इक सपना हमको 
दूर देश को ले जाता था
दूर देश में था व्यापारी
सपनो का वो सौदागर था
हम तुम गाँव शहर क्या उसने
दुनियां जाल में बांध रखी थी

इक सपने में दादा दादी 
अपने घर से दूर पड़े थे
और उस घर में थे जो बच्चे 
अपनी माँ को ढूंढ़ रहे थे
पापा उनके रात और दिन भर
पेढ़ रूपए का ढूंढ़ रहे थे

आज रात जो देखे सपने
उन सपनों में हम थे तुम थे
सपनों में भी इक गठरी में
हमने सपने बांध रखे थे

अभिषेक त्रिपाठी
copyright : २००२

Tuesday, July 12, 2011

भारतेन्दु की रंगदृष्टि : सेवाराम त्रिपाठी

Sevaram Tripathi is a known writer face of progressive writers association of MP. He has contributed book of critics on Muktibodh too. By profession he is a professor in Higher Education MP. Here is an article about Bhartendu's Theatrical vision.


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पर विचार करते हुये हमें उनके युग की स्थितियों, जटिलताओं, अन्तर्विरोधों एवं संकटों को जानना-पहचानना आवश्यक है। वे सही मायने में अपने युग के निर्माता थे। डाॅ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय के शब्दों में ‘‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा का माध्यम अपनाकर साहित्य सृजन, सम्पादन, नाट्याभिनय और निबन्ध लेखन द्वारा देश में पुनर्जागरण (रिनेसा) शुरू किया। पुनर्जागरणकारी व्यक्तित्व अनिवार्यतः अनेकायामी अनेक क्षेत्रीय या बहुविषय स्पर्शक होता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति, जगह-जगह विधाओं और अन्य-अन्य प्रसुप्त चेतना परिसरो को जगाता है, नव चेतना का बीज वपन करता है और चिनगारियाँ छोड़ता है। ऐसा व्यक्ति मात्र विधा विशेष की दृष्टि से नहीं जांचा जा सकता क्योंकि वह एक पूरे युग चैतन्य का माध्यम या स्रोत बनता है। अतः वह युग प्रवर्तक होता है और अनेक विधाओं में नवीन प्रेरणा, नये विचार सूत्र, नये मूल्य पनपा देता है। भारतेन्दु ऐसे ही युग प्रवर्तक व्यक्ति थे। (आलोचना-79, पृष्ठ-51)
भारतेन्दु का रचनात्मक संघर्ष और कृती व्यक्तित्व मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा और हमारी सांस्कृतिक विरासत की पहचान का एक अत्यन्त समर्थ साक्ष्य है। उनकी संघर्षशीलता और जीवटता इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी हमारे लिये अभी भी ज़रूरी है और प्रासंगिक भी। उनकी रचनात्मक ऊर्जा, राष्ट्रवादिता, कला साधना और जीवन संघर्ष के कई आयाम है लेकिन उनकी केन्द्रीयता में सब तिरोहित हो गये हैं। डाॅ. राम विलास शर्मा ने उनका महत्व स्वीकारते हुये बहुत सही कहा है कि ‘‘साहित्य, पत्रकार-कला, देश सेवा-ये भारतेन्दु के लिये तीन अलग-अलग चीज़ें नहीं थी। उनका आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध था। भारतेन्दु शुद्ध कला के उपासक न थे। वह सोद्देश्य साहित्य के हामी थे इसलिये उनका व्यक्तित्व भी शुद्ध साहित्यकार का न होकर एक समाज सेवी कार्यकर्ता का था।’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृष्ठ-5, 6)
भारतेन्दु का समय काफी उथल-पुथल और आपाधापी का रहा है। स्वाधीनता आंदोलन की मशाल जल उठी थी। युगीन परिस्थितियों के अनुरूप अपनी सीमाओं के अंदर, कई अन्तर्विरोधों के चलते हुये भी जनजागरण की भावना, निरन्तर विकसित होती जा रही थी। भारतेन्दु की जिज्ञासु दृष्टि एवं सुचिन्तित तथा तार्किक बुद्धि ने न केवल गुलामी की अन्तःप्रकृति की पहचान की बल्कि संकीर्णताओं अंध विश्वासों, रूढि़यों और पाखण्डों पर व्यंग्य किया। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। ‘सब धन ठोयो जात विलायत उनके व्यंग्य में किसिम-किसिम की गूँजे-अनुगूँजे हैं जिनमें युग की पीड़ा और हाहाकार को अभिव्यक्त किया गया है। नये जमाने की मुकरी में वे लिखते हैं ‘‘भीतर-भाीतर सब रस चूसै। हँसि हँसि कै तन-मन-धन जूसे जाहिर बातन में अति तेज़। क्यों सखि सज्जन, नहिं अंग रेज ‘भारत दुर्दशा’ नाटक में भारत दुर्दैव से कहलाया गया है-
भरी बुलाऊँ देश उजाड़ू महंगा करकै अन्न
सबके ऊपर टिकश लगाऊँ धन है मुझको, धन्न
मुझको तुम सहज न जानो जी/मुझे इक राक्षस मानो जी।
देश की चिन्ता, पीड़ा और उसके खि़लाफ़ उठ खड़े होने की प्रबल आकांक्षा उनके कृतित्व का ज़रूरी उपादान है। उनके लेखे राष्ट्रीय आंदोलन भाषा आंदोलन आंदोलन, साहित्यिक, सांस्कृतिक आंदोलन, सामाजिक आंदोलन मात्र शगल नहीं थे बल्कि जीवन-मरण के सवाल थे। श्री बाल मुकुंद गुप्त ने उनके लेखन की तेज, तीखा और बेधड़क लेखन कहा है। भारतेन्दु पर विचार करते हुये मुझे अक्सर कबीर की याद आती है। उनकी भाषा और व्यंग्य की प्रकृति तथा डंके की चोट बात कहने के सिलसिले में। जैसे-कबीर कहते हैं - सुखिया सब संसार है। खावै अरु सोवे। दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवें। भारतेन्दु भी हमें इसी प्रकार संबोधित करते हैं - ‘‘आबहु सब मिलिकै रोबहु भारत भाई। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। वैसे हर जागरण के मूल में रुदन की प्रवृत्ति होती है। राम विलास शर्मा ने उन्हें हिन्दी नवजागरण और प्रगतिशील चेतना से जोड़ते हुये एक मार्के की बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। भारतेन्दु ने साहित्यिक हिन्दी को संवारा, साहित्य के साथ हिन्दी के नये आंदोलन को जन्म दिया, हिन्दी में राष्ट्रीय और जनवादी तत्वों को प्रतिष्ठित किया। (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृष्ठ 121)
मेरी समझ में भारतेन्दु का महत्व इस बात में भी है कि वे कोटे लिक्खाड़ भर नहीं थे। वे जनता के बीच गये। उनके सुख-दुख, उनकी आशाओं, आकांक्षाओं को उनकी समस्याओं को उन्होंने गहराई तक जानने- पहचानने का प्रयत्न किया और उनका निदान खोज़ने का उपक्रम भी किया। उन्होंने देखा कि समाज में कई प्रकार की विकट समस्यायें हैं जैसे निरक्षरता, ग़रीबी, रूढि़या, अंधविश्वास और अपने आपको न जान पाने का अहसास। इसलिये उन्होंने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानते हुये जन शिक्षण के रूप में भी इस्तेमाल किया। उनकी खूबी इस बात में भी परखी जा सकती है कि उन्होंने लोक प्रचलित कला माध्यमों, स्थानीय जन बोलियों और लोक प्रचलित विश्वासों का जीवन्त इस्तेमाल जनता की भलाई और बेहतरी के लिये किया।
उनकी रंग दृष्टि की पहचान इस रूप में की जा सकती है कि उन्होंने नाटक और दृश्य काव्य के बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। वे दृश्य काव्य को जीवन के लिए सबसे जीवन्त और उपयोगी माध्यम मानते हैं। उन्होंने स्वयं नाटकों में अभिनय करके उसकी शक्ति सीमा की पहचान और अर्थवत्ता की खोज की थी। उनका ‘‘नाटक अथवा दृश्य काव्य’’ नामक दीर्घ निबन्ध उनके अन्तर्जगत की बेचैनी को सूचित करता है। वे लिखते हैं - ‘‘नाटक लिखना आरम्भ करके जो लोग उद्देश्य वस्तु परम्परा से चमत्कारजनक और मधुर अतिवस्तु निर्वाचन करके भी स्वाभाविक सामग्री परिपोष के प्रति दृष्टिपात नहीं करते उनका नाटक, नाटकादि दृश्य काव्य लिखने का प्रयास व्यर्थ है क्योंकि नाटक आख्यायिका की भांति श्रव्य काव्य नहीं है।’’ वे आगे लिखते हैं - ‘‘नाटक में वाचालता की अपेक्षा मितभाषिता के साथ वाग्मिता का ही सम्यक आदर होता है। नाटक में प्रपंच रूप से किसी भाव को व्यक्त करने का नाम गौण उपाय है और कौशल विशेष द्वारा थोड़ी बात में गुरुतर भाव व्यक्त करने का नाम मुख्योपाय है। थोड़ी-सी बात में अधिक भाव की अवतारणा ही नाटक जीवन का महौषध है।’’
‘नाटक’ नामक इस प्रदीर्घ निबंध में उनका स्पष्ट मंतव्य है कि पुराने पड़ गये नियमों में परिवर्तन होना चाहिये। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है ‘‘मनुष्य की परिवर्तनशील वृत्तियों को ध्यान में रखकर नाटक लिखें।’’ क्रांति और नवजागरण, संस्कार और शोधन की सृष्टि से जनता के लिये वह नाटक को सबमें सशक्त माध्यम मानते थे। उनका नज़रिया यह भी था कि दृश्य काव्य और साक्षात्कार का माध्यम होने के कारण नाटक की प्रभावशीलता बढ़ जाती है। भारतेन्दु ने कई प्रकार के नाटक लिखे हैं। मौलिक, रूपांतरित और अनूदित। इन सभी में सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक विषयों में उनकी नई दृष्टि का न केवल पता चलता वरन् शिल्प और शैली की विविधता के भी दर्शन होते हैं। उनके मौलिक नाटकों में भारत जननी वैदिकी हिंसा-हिसा न भवति, प्रेम जोगिनी, विषस्या विषमौषधम् चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी और सती प्रताप प्रमुख है।
भारतेन्दु के मौलिक नाटकों में कथ्य की नवीनता विषयों की विविधता और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा के सूत्र हैं। विषय विषमौषधम में उन्होंने देशी राजाओं की दुर्दशा का चित्रण किया है। वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति में भारतेन्दु की धर्म के नाम पर की जाने वाली पशुबलि का विरोध करते हैं। भारत दुर्दशा में आयेगी। राज में भारत की खराब स्थिति एवं उसका निरन्तर दाम को चित्रित करते हैं। नील देवी में भारतीय नारी के आदर्श का प्रतिपादन करने का प्रयास करते हैं। अनेक नाटकों में सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति के साथ युग की समस्याओं को जनता तक पहुंचाने का उद्यम है। उनके नाटक जनकल्याण की भावना से लवरेज है। इन नाटकों में अतीत के गौरव का प्रतिपादन एवं राष्ट्रीय जागरण के बहुआयामी स्वर हैं।
हिन्दी में आचार्य भरत मुनि की तरह भारतेन्दु की प्रतिष्ठा है। उसकी मुख्य वजह यह है कि भारतेन्दु ने पहली बार बड़ी तीव्रता से नाटक की माध्यमगत, कलागत विशिष्टताओं की ओर ध्यान दिया और सामूहिक तौर पर योजनाबद्ध ढंग से नाटक और रंग कर्म को सक्रिय आंदोलन के रूप में पेश किया। उन्होंने नाटक और रंगमंच के परस्पर सम्बन्धों की अनिवार्यता पर जोर देते हुये रंग कर्म का शुभारम्भ और विस्तार किया। नाट्य मण्डलियों की स्थापना करके उन्होंने नाटक को लोकप्रियता प्रदान की। नाटक, रंगमंच और रंगकर्म के सामने जो अनेक मुकिश्ल सवाल थे मसलन नाट्य लेखन, अनुवाद, प्रदर्शन, राष्ट्रीय चेतना का विकास, लोक रूचि का परिष्कार, पारसी थियेटर के खिलाफ संघर्ष। ना ही नाट्य परम्परा का विकास, नाट्य शिल्प की नई योजना, नये रंगमंच की स्वतंत्र परम्परा को विकसित करने के लिये वे जीवनपर्यन्त संघर्षशील रहे। वे मानते थे कि ‘कला वास्तविक उन्नति का आधार है।’ उनकी मुख्य चिन्ता यह थी कि हिन्दी का कोई रंगमंच नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिये उन्होंने अनेक प्रयास किये।
मैं जब पढ़ता था तो हमारे पाठ्यक्रम में भारतेन्दुजी का एक प्रहसननुमा नाटक ‘अंधेर नगरी’ था। पढ़ने में यह अत्यन्त सहज है। इसकी जो चीज सबसे अधिक आकर्षित करती है वह है इसकी भाषा, इसकी जीवंतता, इसकी रवानगी और हास्य व्यंग्य का बेहद आत्मीय पुट। यह नाटक समय के साथ-साथ निरन्तर अर्थवान होता जा रहा है। एक सौ पच्चीस-तीस साल से ज्यादह इसको लिखे हुये हो गये लेकिन इसका कथ्य और खिलदड़ापन अभी भी नितान्त उपयोगी है। इसकी मार इसका व्यंग्य इसकी स्पिरिट आज भी नित नूतन है। इसकी जिस लहजे का इस्तेमाल हुआ और इसके विकास में जो खान की और ताजगी उसको कोई जवाब नहीं। उसकी अर्थ छवियां बेमिशाल है। ‘अंधेर नगरी’ पर विचार करते हुये डाॅ. राम विलास शर्मा का यह कथन बरबश याद आता है। कि ‘‘अंधेर नगरी अंग्रेजी राज का ही दूसरा नाम है लेकिन यह नाटक ‘‘अंग्रेजी राज्य की अंधेर गर्दी की आलोचना ही नहीं वह इस अंधेर गर्दी को खत्म करने के लिये भारतीय जनता की प्रबल इच्छा भी प्रकट करता है। इस तरह भारतेन्दु ने नाटकों को जनता का मनोरंजन करने के साथ उसका राजनीतिक शिक्षण करने का साधन भी बनाया। इसके गीत और हास्य भरे वाक्य लोगों की जवान पर चढ़ गये हैं और भारतेन्दु की प्रहसन कला यहां अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती हैं।’’
भारतेन्दु अकेले ऐसे नाटककार हैं जो नाटक, नाट्यकला, रंगमंच, नाट्य भाषा, नाट्य समीक्षा, रंगकर्म के प्रति चिन्तित और रंगमंच के प्रति निष्ठावान थे। रंगकर्म, रंगमंच नाटक के विविध कला रूपों और नाट्य समीक्षा-इन सभी आयामों के प्रति उनका ऐतिहासिक योगदान है। भारतेन्दु जी की नाट्य साधना की ही यह देन है कि आज का हमारा रंगमंच, रंगकर्म और रंग कौशल जनता से सीधे जुड़ा है। हालांकि हमने युग की परिस्थितियों के अनुकूल नये-नये प्रयोग किये हैं और इन प्रयोगों का सिलसिला अभी भी जारी हैं। भारतेन्दु दिन-ब-दिन प्रासंगिक अर्थवान और महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। अपने छोटे से जीवन में उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दी जनता की जो सेवा की है। साहित्य की विभिन्न विधाओं को खुलकर खेलने का अवसर दिया है। उनके इस ऐतिहासिक अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

Sunday, July 10, 2011

मेरी कविताएं : अपना सर्वश्रेष्ठ

बड़े दिनों बाद मुझे अपनी एक डायरी मिली है जिसमे मैंने ९४-९७ तक की कुछ कविताएं और गीत लिख रखे थे. यूँ ही आज उन्हें आपके सामने लाने का मन हुआ और अब ये आपके सामने हैं. वैसे अपने संगीत और धुन निर्माण के दौरान लगातार लय और भाव के साथ रह कर मैं अपने लिए गीत  लिख ही लेता हूँ...हाँ कवि रूप पर मैं ध्यान ज़रूर नहीं देता..जबकि मेरे पापा लगातार कहते रहे हैं की तुम लिख सकते हो और तुम्हें लिखना चाहिए..आज बस उन्ही के लिए ये कविताएं समर्पित हैं........


अपना सर्वश्रेष्ठ - एक

मेरी सारी उपलब्धियां
सारा जीवन
और दुनियां
सभी अछूते हैं अभी
उससे

फिर भी
आपाधापियों के बीच
अपने अटूट विश्वास के साथ
बचा कर अपने अंत के लिए
रख लिया है मैंने
अपना सर्वश्रेष्ट


अपना सर्वश्रेष्ठ - दो 


बहता पानी नदी का
जेठ आषाढ़ की धूप में भी
बचाए रखता है 
अपनी ठंडक
अपनी आत्मा की तरह
जैसे बचा लेती है धूप 
अपनी गर्मी
बर्फीले दिनों में भी

वैसे ही कुछ दिनों के लिए
मैंने भी बचा कर रखा है
अपना सर्वश्रेष्ठ



copyright : Abhishek Tripathi

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