Tuesday, May 5, 2015

संगीत में संगत और वाद्यवृंद रचना-विधान : अभिषेक त्रिपाठी (Accompaniment and Orchestration in Music- Abhishek Tripathi)


भारतीय संगीत में आर्केस्ट्रा के लिए भरत के नाट्यशास्र के अलावा कोई अन्यत्र उल्लेख मेरी जानकारी में नहीं है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कुछ विद्वानों ने शनैः शनैः इस विषय पर चर्चा यदा-कदा अपने ग्रंथों व आलेखों में की है। यह निश्चित रूप से नैसर्गिक है, क्योंकि भारतीय संगीत मूलतः मेलोडी प्रधान भाव का है। यहाँ पर स्वरों की क्रमबद्ध मालिकाओं का ही प्रचलन है। एक समय पर मानव कंठ एक ही स्वर उत्पन्न कर सकता है। इसी भावना से पूरे भारतीय संगीत का साहित्य और शास्र रचा गया है। यूँ तो यह कहा जा सकता है कि हमने संगीत के मूल नैसर्गिक रूप को ही अक्षुण्य बनाए रखा है। इसी मूलभाव के विभिन्न रूप गायन और वादन की विधाओं में विद्यमान दिखाई देते हैं पर यह भी माना जा सकता है कि स्वरों से उत्पन्न होने वाले आनंद के लिए हमने प्रयोग और आधुनिकता का अनुसरण करने के बजाय यादातर इसे वर्य बनाए रखा। यह वर्जना भी शुद्धता के नाम पर प्रतिपादित की गयी। अब संगीत की उत्पत्ति  तो एक ही है, कहीं, न कहीं समूचे संगीत का एक ही स्रोत रहा होगा। या कहें कि संगीत के लिए आनंद के नाद के लिए, उस स्रोत की पहचान किसी एक ही व्यक्ति ने की होगी और कालांतर में वह भिन्न-भिन्न भौगोलिक, सामाजिक अवस्थाओं से होता हुआ आज इस रूप में है कि हम कहीं उसे हिंदुस्तानी संगीत कहते हैं, कहीं पर्सियन, इटालियन, फ्रेंच , यूनानी या ऐसा ही अन्य कहीं का भी संगीत।
मुझे लगता है कि यह भूगोल और समाज का प्रभाव है कि जो संगीत इन रूपों और प्रकारों में विद्यमान है तो अब यह आनंद और पसंद का प्रश्न है कि कहीं मेलोडी प्रधान संगीत प्रचलन में है और कहीं हार्माेनी प्रधान और कहीं-कहीं तो रिद्म प्रधान। कमोबेश इन्हीं तीनों गुणों के विभिन्न परिमाणों के मिश्रण संगीत के रूप में विभिन्न देशों क्षेत्रों में प्रचलित हैं। भारतीय संगीत चूँकि मेलोडी प्रधान है, इसलिए यह कलाकार प्रधान भी हैं, जहाँ तक प्रदर्शनकारी कलारूप का मामला है तो यह सच ही है कि हमारे संगीत में एक नेतृत्व, एक कलाकार की ही परिपाटी विकसित हो सकी है। सामूहिकता का अभाव है कि ज्यादा  से ज्यादा  हम संगत और उससे आगे जुगलबंदी तक ही पहुँच सके हैं। संगत को हम मूलतः मेलोडी को निबद्ध करने के लिए तालपक्ष की बंदिश के रूप में ही स्वीकार कर सके हैं। गायक या वादक के साथ, ताल और ताल वाद्यों के साथ किसी सुरीले वाद्य पर लहरा के इतर हमने प्रयोग भी लगभग नहीं किए हैं। यह लहरा भी मूलतः लय के स्थापना निर्देश को बनाए रखने के लिए है। वरना संगत कलाकार के लिए कोई नियम या शास्र नहीं रचा गया है। ऐसा मेरा मानना है। कोई भी कलाकार किसी दूसरे कलाकार के साथ संगत तभी तक कर सकता है, जब तक मुख्य कलाकार इस बात के लिए आश्वस्त है कि संगतकार उसके प्रदर्शन को ओवर शैडो नहीं करेगा। कुल मिलाकर यह संगत आश्रय का प्रश्न है। इसे इतना गौण माना जाता है कि अभी तक मेरी जानकारी में संगत के विषय पर कहीं कोई विशिष्ट चर्चा उपलब्ध नहीं है। संगत मूलतः अनुसरण करते हुए सहकारिता की विधा है। संगत करने वाला कलाकार स्वतंत्र रूप से भी कलाकार होता है या हो सकता है। उसके लिए भी सांगीतिक कौशल का उपार्जन भी अच्छे शिष्य की तरह ही करना पड़ता है। इसकी मूल भावना यह है कि कलाकार अपने कौशल से प्रमुख कलाकार के कौशल को उभारने तथा यादा रंजक बनाने के लिए कैसा धनात्मक कलात्मक योगदान एक प्रदर्शन के दौरान कर सकता है। यही एक अच्छी संगत का गुण भी है और आवश्यकता भी। संगत के बारे में सैमुएल एडलर ने लिखा है कि ‘प्राचीन ग्रीक की चर्चाएँ हमें बताती हैं कि उनके समय में वाद्य संगीत केवल नृत्य, नाटक या गीत या मानव की आवाा की प्रतिकृति के लिए इस्तेमाल होता था।’1
यानी संगत को आर्केस्ट्रेशन का प्राचीन ंफैशन कहा जा सकता है। जैसे ही संगीत की परफार्मेंस शुरू हुई होगी वैसे ही परफार्मर के प्रभाव को बढ़ाने के लिए संगत की शुरुआत हुई होगी। संगत की महत्ता पर प्रसिद्ध कवि मंगलेश डबराल की एक कविता का यह अंश उद्घृत कर रहा हूँ -
 ‘मुख्य गायक की गरज में वह अपनी गूंज मिलाता आया है
 प्राचीन काल से गायक जब अंतरे की जटिल तानों  के जंगल में खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लांघकरचला जाता है
भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थायी को संभाले रहता है
जैसे समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था।’2
पाश्चात्य संगीत में भी आर्केस्ट्रेशन की शुरुआत के दौर यानी लगभग सन 1600 के पहले वाद्यों का उपयोग सिंफ वोकल म्यूजिक की संगत में ही होता था। 1600 से 1750 का दौर आर्केस्ट्रा के विकास का पहला दौर था, जिसमें आर्केस्ट्रा के स्थायित्व पर कार्य हुआ और उसके बाद उसमें प्रयोगवादी दृष्टि का समागम हुआ और इस तरह पाश्चात्य संगीत में संगत शनैः-शनैः आर्केस्ट्रेशन यानी वाद्य वृन्द संयोजन में तब्दील होती गयी। जाज म्यूजिक और ब्लूज़ में अभी भी संगत की रंगत ही हावी रहती है। जातीय शास्रीय संगीत में आज भी संगत का ही बोलबाला है।
वाद्यवृन्द रचना मूलतः पाश्चात्य संगीत की विधा है। प्रत्येक कला की तरह ही इसके लिए कौशल प्राप्त करना पड़ता है। वाद्यवृंद एक सामूहिक कला है, जिसमें हर वाद्य और वादक का कार्य निश्चित होता है। यह मुख्य रूप से हार्माेनी के सिद्धांत पर तैयार किया जाता है। बहुत पहले से सामूहिक कार्यक्रमों में गायकों या नर्तकों के साथ वादकों के समूह ग्रुप लीडिंग करते थे। ग्रुप लीडिंग का तात्पर्य है एक ही मेलोडी को सारे वाद्यों पर एक साथ बजाना। धीरे-धीरे जैसे-जैसे हार्माेनी के सिद्धांतों की स्थापना विकसित होती गयी, वैसे-वैसे ही ग्रुप  लीडिंग का उत्कर्ष आर्केस्ट्रा के रूप में होता गया, जिसमें हर वाद्य अपना स्वतंत्र विशिष्ट रूप एक समूह में बनाए रखते हुए पूरे समूह की प्रस्तुति में अपना योगदान बनाए रखने लगा। अठारहवीं सदी से हार्माेनी के सिद्धांतों को मूलरूप मिलना शुरू हुआ, जो उन्नीसवीं सदी में एक पर्याप्त विकसित रूप ले चुका था। आर्केस्ट्रा निश्चित रूप से पाश्चात्य सभ्यता की उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है।3  किसी मेलोडी या कम्पोजिशन को उच्चतम भावनात्मक सौन्दर्य के स्तर तक पहुँचाने के लिए वाद्यवृंद के इस्तेमाल की योजना को आर्केस्ट्रेशन या वाद्य वृन्द रचना कहा जा सकता है। आर्केस्ट्रेशन किसी कंपोजिशन का भौतिक रूप प्रदान करने की कला है। एक कंपोजिशन में श्रोताओं से संवाद करने की क्षमता का उत्कर्ष उसके आर्केस्ट्रेशन से ही तय होता है। यह पूर्णतः कंपोजर या आर्केस्ट्रेटर में सौंदर्यबोध पर निर्भर हैं। इसमें कंपोजर की वैयक्तिक चिंतन प्रक्रिया का शत-प्रतिशत योगदान होता है। हमारे यहाँ बहुत से संगीतज्ञों और संगीत प्रेमियों के बीच एक शब्द प्रचलित है ‘कान सेन’। सुनना भी एक कला है और सांगीतिक अभिरुचि पूर्णतः इस बात पर निर्भर है कि आप किसी चीा को कैसे सुनते हैं। सैमुएल एडलर की मान्यता तो यही है कि ‘वाद्यों और उनके कांबिनेशन के चुनाव में कान निर्णायक कारक होंगे।ल वाद्यवंृद संयोजन करने के लिए उपयुक्त शिक्षा और ट्रेनिंग की आवश्यकता होती है।
संगत और वाद्यवृंद संयोजन, दोनों ही विधाओं में विधान तो संगीत के ही काम करते हैं परन्तु ये विधान संगतकार या आर्केस्टेटर की रंगत के अनुरूप प्रकट होते हैं। इनकी वैयक्तिक निजता इस रंगत के लिए उत्तरदायी होती है। किसी भी कलारूप में कलाकार की यह निजता उसका वैशिष्ट्य होती है, जिससे वह दूसरे कलाकारों से इतर दिखाई पड़ता है। उसके दिलोदिमाग का संवेदनात्मक, ज्ञानात्मक स्तर उसके वैशिष्ट्य का रूप लेकर अवतरित होता है। संगीत के विधानों के साथ इस वैशिष्ट्य का समागम उस संगतकार या आर्केस्ट्रेटर का श्रोताओं के समक्ष सफलता के स्तर का निर्धारण करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि संगत और वाद्यवृंद संयोजन में विधान तो संगीत के ही होते हैं परन्तु उस पर रंगत कलाकार के दिलो-दिमाग की ही होती है, इसीलिए हर प्रदर्शन या हर कम्पोजिशन एक अलग छाप छोड़ने का माद्दा रखती हैं।
जैसे-जैसे संगीत के विधान एक कलाकार के अंदर गहरे स्थापित होते जाते हैं संगत के लिए भी उसकी तैयारी होती चली जाती है। इसमंे शिक्षा के साथ-साथ प्रायोगिक संगीत की बैठकों के दौर और चर्चाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। पर यह पूरी तैयारी ‘इनफार्मल’ किस्म की ही होती है। आर्केस्ट्रेशन के लिए जिस तरह हर वाद्य के लिए स्वरलिपियों का प्रचलन पाश्चात्य संगीत में है वैसा कोई तीसरा हिंदुस्तानी संगीत में अभी तक सामने नहीं आया है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि यहाँ सामूहिक प्रदर्शन करने का प्रचलन अपेक्षाकृत नहीं के बराबर है। जबकि इसके विपरीत पाश्चात्य संगीत में यह प्रभावशाली ढँग से बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। कुल मिलाकर हिंदुस्तानी संगीत की स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति ने इस विकास को अवरुद्ध करने का कार्य किया। किसी संगीत चर्चा में मैंने सुना था कि प्रसिद्ध तबलावादक सतीश तलवलकर ने संगत पर कुछ अच्छा लिखा है। हालाँकि मैं उस सामग्री तक नहीं पहुँच सका हूँ पर उत्कृष्ट संगतकार के साथ साथ एक स्वतंत्र कलाकार के रूप में उनकी विशिष्ट पहचान है इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में उनका लेखन निश्चित ही प्रभावी होगा।
संगत से वाद्यवृंद संयोजन तक पहुँचने की यात्रा को जितने कम समय में पाश्चात्य संगीत में तय किया गया है उसकी तुलना में बहुत कम समय में इस तरक्की को हिंदी फिल्म संगीत की विधा ने पाया है। इसका एक कारण यह भी माना जा सकता है कि पाश्चात्य संगीत में आर्केस्ट्रेशन का विकास तब तक पर्याप्त रूप से हो चुका था। हिंदी फिल्म संगीत ने केवल उसे आत्मसात किया, इसीलिए इस यात्रा में कम वक्त लगा। हालाँकि अरबी पर्सियन म्यूजिक का प्रभाव ही अस्सी के दशक तक हावी रहा। इसके पीछे की एक वजह यह हो सकती है कि पर्सियन म्यूजिक और इंडियन म्यूजिक में टोनल समानताएँ काफी हैं। हार्माेनी के सिद्धांतों का स्थायित्व और पर्सियन म्यूजिक का टोनल सामंजस्य हिंदी फिल्म संगीत के इस त्वरित विकास का मुख्य कारण बना होगा। इसके बाद सूचना प्रौद्योगिकी की मेहरबानी से सामान्य आदमी दुनिया के बाकी संगीत तक भी आसानी से पहुँच सका। इसीलिए आजकल के संगीत निर्देशकों में वल्र्ड म्यूजिक का प्रभाव अब प्रचुरता से मिलता है।
आर्केस्टेªशन पर अधिकांशतः काम केवल फ़िल्म  संगीत में ही हुआ है। इधर के सालों में जब से भारत में ंफ्यूजन म्यूजिक का प्रचलन शुरू हुआ तब से फोक और क्लासिकल म्यूजिक में आर्केस्ट्रेशन को लेकर कुछ प्रयोग शुरू अवश्य हुए हैं पर इस मूल धारा के मुख्य कलाकारों में इन प्रयोगों को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखाई पड़ता। यादातर कलाकार रूढि़वादी परंपरा से अलग हटकर सोचने की दिशा में आगे बढ़ने को लेकर खास दिलचस्पी नहीं दिखा पाए हैं।
इस दिशा में शीर्ष कलाकारों को सोचना होगा कि संगीत के विकास के लिए संगत और आर्केस्टेªशन को लेकर क्या नीति अपनाई जा सकती है जिससे हम अपनी परंपराओं पर कायम रहते हुए नई तकनीकों और साउंड-हार्माेनी के विभिन्न सिद्धांतों का समुचित समायोजन संगीत के लिए इस तरह कर पाएँ कि समय के साथ चलने वाली धारा हमें और हमारे संगीत को और अधिक आनंददायी और उत्तरदायी बना सके। हमें इस बात को गंभीरता से महसूस करना पड़ेगा कि बहती धारा ही पानी में जीवन का आनंद बनाए रखती है जबकि ठहरा पानी एक समय के बाद सड़ांध में बदल जाता है।
मुख्य बात पर लौटें तो संगत और आर्केस्ट्रेशन दोनों ही सामूहिक संगीत के भिन्न पहलू हैं। दोनों में ही, भारतीय परिप्रेक्ष्य में, नवाचार और प्रयोग किए जाने की आवश्यकता है। विशेषतः फोक और शाóीय संगीत में इसका कितना उपयोग किया जा सकता है इस पर चर्चा, विचार और मंथन की महती आवश्यकता है। रूढिव़ादिता से हटकर एक सोच हमेशा ही प्रगति को बढ़ावा देती है। मेरी समझ में भारतीय संगीत के परिप्रेक्ष्य में संगत और आर्केस्ट्रेशन को विस्तार से समझने की आवश्यकता है। विस्तारित समझ ही कालांतर में स्वीकार्यता में परिवर्तित हो सकेगी।
संदर्भ-
11. सैमुएल एडलर-  द स्टडी आॅफ आर्केस्ट्रेशन दूसरा संस्करण  1989
2. मंगलेश डबराल- आवाज़ भी एक जगह है।
3. सैमुएल एडलर- द स्टडी आॅफ आर्केस्ट्रेशन दूसरा संस्करण पृष्ठ 3
4. वही पृष्ठ 04


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