Tuesday, April 5, 2016

!! हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा !!- डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी

Hindi Hain Hum, Watan Hai Hindostaan Hamara!! 

हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा !!

 डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी

‘‘मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध। शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दल जिजीविषा।’’  (हजारी प्रसाद द्विवेदी)

हमारा यह दौर बेहद पेचीदगियों से भरा है। आज़ादी के बाद समूची दुनिया से हमारे सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक सम्बन्ध बने हैं। हमने बाहर की हवाओं के लिए अपनी खिड़कियाँ भी खोली हैं। विज्ञान, टेक्नोलाॅजी, उद्योग और नए भारत के निर्माण की नई-नई प्रविधियाँ भी खोजी हैं। ‘आज़ादी और जनतंत्र’ ये दो ऐसे मूल्य हैं जिन्हें निरन्तर विकसित करना हमारा मूल ध्येय और प्रतिज्ञा रही है, और इन्हीं की सफलता पर भारत की अस्मिता है और इन्हीं के बलबूते भारत का मान-सम्मान और उसकी विकास यात्रा का समूचा दारोमदार है। यह सही है कि हमारे विकास का नया ‘समाजशास्त्र’ बहुत साफ-सुथरा नहीं है। इसमें कई तरह के घाल-मेल और आपाधापियां हैं। और तरह-तरह के मंसूबों का घमासान भी। साम्राज्यवादी,, पूंजीवादी, साम्प्रदायिक, मजहबी एवं संकीर्णतावादी शक्तियों ने हमारी विकास प्रक्रिया को लगातार बाधित किया है। एक ओर हम जड़ताओं, ग़लत परम्पराओं, अमानवीय एवं क्रूर ताकतों से संघर्ष कर रहे हैं तो दूसरी ओर अलगाववादी, क्षेत्रीयतावादी, आतंकवादी प्रवृत्तियां भी लगातार सक्रिय है। शहरीकरण की समस्या, ग़रीबी और बेरोज़गारी की समस्या और स्वार्थ की सोच प्रणाली ने हमें लगातार सकते में डाला है। हम विकास की ऐसी हवाओं में उड़ रहे हैं जिनकी अपनी कोई जमीनी सच्चाई नहीं है। है तो केवल एक तरह का अनजाना हौव्वा। जनसंख्या की समस्या इतनी विस्फोटक है कि हमारी विकास प्रक्रिया लगातार प्रश्न-चिह्नों का सामना कर रही है। महाजनी सभ्यता और भाषाई खेल ने हमें कई तरह से तोड़ा है। ऐसे अनेक सवाल हैं जिनसे हम स्थाई रूप से घिरे हुए हैं। पूरनचन्द्र जोशी लिखते हैं कि ‘‘भारत के राष्ट्रीय संकट की तीव्रता व गहराई का इस बात से पता चलता है कि आज़ादी और उसके बाद के दौरान जिस विज़न, दिशा, मूल्यों और कार्यक्रम पर राष्ट्रीय सहमति थी उन सब को चुनौती देने वाली उस राष्ट्रीय सहमति को विघटित करने वाली और राष्ट्र को विपरीत दिशा में ले जाने के लिए कटिबद्ध ताकतें आज हासिए से केन्द्र में स्थापित हो रही है।’ (स्वप्न और यथार्थ)
बदलाव और विकास के रूपक और माॅडल भी कई तरह के आये हैं, लेकिन अभी तक कोई राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पाई। यह एक अलग कोटि का तकाज़ा है। जाहिर है कि हमारे एजेण्डे बदल गए हैं, रास्ते बदल गए हैं, मानक बदल गए हैं, उनके कार्यभार बदल गए हैं। यहाँ तक की उनकी नीयत बदल गई है, हालांकि कमोवेश समस्यायें वही हैं जो पहले हुआ करती थी। चारित्रिक अधोपतन, कथनी-करनी का फकऱ् और गर्व में डूबने-उतराने के मंजर अलग हैं। इनमें ऐसी गनगनाहट भरी हुई है जो सब धरा कराया औंधा कर सकती है। जनतंत्र और विकास, आज़ादी और नये स्वप्न, समाज और उसके विविध रूपांतरण, मीडिया के नित नये करतब न जाने कितने प्रश्न हैं, जिनके उत्तरों को तलाशने में हम अरसे से जुटे हैं। विज्ञापन और बाज़ार ‘ग्लोबलाईजेशन’ और पूँजी का सार्वजनिक महोत्सव, विकास प्रक्रिया की अंधी दौड़, आचरण की शुचिता को निरन्तर पलीता लगा रहा है। विकास किसका और किस तरह का। हमारा ध्यान केवल विकास पर है। वह भ्रष्टाचार से हो या चारित्रिक और नैतिक अधोपतन से। आज के दौर में इसके कोई मायने नहीं बचे। सब विकास चाहते हैं इसलिये चारों ओर विकास के लिये कोहराम है, मारामारी है, लीपापोती है। हर हाल में विकास के आंकड़ों का खेल जारी है। राष्ट्रीयता के तमाम नारों के बीच हम सार्वजनिक जीवन में लहूलुहान, किंकर्तव्यविमूढ़ और मूल्य हीनता के शिकार हैं। विकास की समूची प्रक्रिया ‘धींगामुश्ती’ में चल रही है। और हम बिना किसी मतलब का ‘जम्प’ लगा रहे हैं।
भारतीय संस्कृति के जो महान मूल्य हैं, अनेकता में एकता, साझापन, मानवीय मूल्यों पर अखण्ड विश्वास। सभी धर्मों के प्रति आदर, हर वंचित, उपेक्षित और सताए गए के प्रति करुणा एवं दया। अंतिम छोर पर खड़े अंतिम आदमी को विकास की धारा से जोड़ना। इन सबके बावज़ूद हमारी सांस्कृतिक समृद्धि के मानक धीरे-धीरे अवमूल्यित हुए हैं। उसकी वजह यह है कि हमने उन शक्तियों के खि़लाफ़ सघन प्रतिरोध नहीं किया, जो हमें पीछे की ओर ले जाने का, लगातार भटकाने का प्रयास करती रही हैं। अखिलेश के शब्दों में ‘‘हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है, लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े हार रहे हैं। अपसंस्कृति, नव साम्राज्यवाद, संवेदना का विनाश किसी से हम लड़े नहीं। यह और भी कुत्सित है कि लड़ने की कौन कहे लोग उनका स्वागत कर रहे हैं। खुशी से चिल्ला रहे हैं, खिलखिला रहे हैं।’’ (वह जो यथार्थ था)
सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करने वाले लेखकों, कलाकारों ने हमेशा सच का साथ दिया है। सत्ता के बरक्स उन्होंने जनता की चाहतों, विश्वासों और संघर्षों को वाणी दी है। हम लेखकों का संघर्ष इस बात के लिए हमेशा रहा है बकौल मुक्तिबोध कि ‘जो है उससे बेहतर चाहिए।’ जाहिर है कि जीवन में जितने गड्ढे हैं उनको भरने की संवेदना साहित्य में होती है। समय के साथ साहित्य का ‘कटआउट’ बहुत बड़ा हो जाता है। हमारी चुनौती यह भी है कि हम ऐसे समय में हैं जहाँ सब कुछ बिक रहा है और इस बिक्री के ‘महारास’ में हम अपने को भी बिकने से नहीं बचा पा रहे हैं। बाजार का हिंसक और बेशर्म रूप हमारे सामने है। बाजार की बर्बरता ने कई ऐसे प्रश्नों को हमारे सामने उपस्थित किया है कि हम डरे-डरे से हैं। असमंजस में जी हलाकान होता है फिर भी इससे जूझना है, जूझना पड़ेगा, जूझने के अलावा कोई विकल्प नहीं जैसा कि मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा था -
‘‘पड़ा हूँ दो दुनिया के बीच
द्वन्द्व में, ये दुनिया जो हो गई मृतप्राय
और दूसरी
जन्म लेने में अक्षम
नहीं कोई ठौर टिकाऊँ सिर जहाँ’’
इस व्यथा के समानांतर लेखकों ने लगातार सक्रिय प्रतिरोध किया है। ऐसा नहीं है कि कुछ लेखक अपवाद स्वरूप न बिके हों। उन्होंने लाभ और लोभ के लिए अपनी पहचान का खातमा भी कर दिया हो। लेकिन बहुसंख्यक रचनात्मकता अभी भी प्रतिरोध कर रही है और आगे भी प्रतिरोध जारी रखेगी। लेखक जनता का पक्षधर होता है और इसीलिये वह सत्ता के खि़लाफ़ जनता के संघर्षों को वाणी देता रहा है। और जिस दिन वह अपनी इस बुनियादी प्रतिज्ञा से कन्नी काट लेगा। उस दिन वह छलिया और स्वार्थी हो जायेगा। अपना अस्तित्व समाप्त कर लेगा।
प्रश्न है कि देश भक्ति, सामाजिक समरसता, सर्वधर्म समभाव और सांस्कृतिक समृद्धि इन पर विमर्श करने के लिए हमें अपनी सच्चाइयों को, अपने आपको भी टटोलना पड़ेगा। केवल जज्बों भर से बात नहीं बन सकती। इन सबके लिए हम संघर्ष कर रहे हैं लेकिन पूंजी बाज़ार, विज्ञापन, मीडिया और सूचना विस्फोट की कार्यवाहियां इतनी तेज़ हैं। वक्त के थपेड़े इतने तेज हैं कि हम किसी तरह टिके रह पाएं और अपने सांस्कृतिक वैभव को सुरक्षित कर पाएं। यह कठिन काम है। यह केवल आदर्श हो सकता है, हक़ीक़त नहीं। जिस दौर में गला काट प्रतियोगितायें हो रही हों। धर्म के नाम पर, भाषा के नाम पर रक्तपात हो रहे हों और एग अलग तरह का मनोविज्ञान बन रहा हो, स्वार्थों के खेल चल रहे हों। जहां अपराधीकरण, आतंकवादी कार्यवाहियां नंगा नाच कर रही हों और हम विकल्पहीनता की त्रासदी से लगातार जूझ रहे हों, जहाँ स्वार्थ ही विचारधारा बन गई हो। प्रजातंत्र अपने स्वार्थों के अनुकूल झुकाने और हाँकने के षड़यंत्र हों, ऐसे समय में उन आदर्शों के बलबूते क्या बहुत ज्यादा बातें करनी चाहिए। हालांकि कुछ लोगों को बातें करने का रोग है। हाँकने की आदत हैं। हमें बहुत सोच-समझकर बहुत आलोचनात्मक ढंग से सोचना पड़ेगा और जो विकृतियां आ गई हैं, उनसे संघर्ष करना पड़ेगा। हमारा सांस्कृतिक समुच्चय केवल बातों भर में नहीं हो उसे व्यवहार में लाये बगैर हम इस देश की बहुलता को नहीं बचा सकते। यह चुनौती हमारे सामने हैं और यह कोई छोटी चुनौती नहीं है।
भारतीय संस्कृति केवल अतीत भर को नहीं देखती। वह वर्तमान और भविष्य को भी देखती है। यह दौर ऐसा है जिसमें खुले मन, खुले दिल और दिमाग से समन्वय के रास्ते में बहुत सारी बाधाये हैं। भारतीय संस्कृति में उदारता का जो तत्व रहा है धीरे-धीरे उसमें संशय के नाग फुफकारने लगे हैं। एक ऐसा तबका सक्रिय हुआ है जो अपने भर को देशभक्त कहता है बाकी से घृणा करता है और दूसरों को देशद्रोही मानता है, गर्व में गनगनाने के सुभीते बहुत पाल लिये गये हैं। खूब छाती ठोंककर गर्वोक्तियों के विस्फोट किये जा रहे हैं और उनका नतीजा ठनठन गोपाल है। मेरी समझ में भारतीयता ज़्यादा से ज़्यादा बिखर जाने में, ज़्यादा से ज़्यादा खुले मन में ही सम्भव है। ‘‘हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा’’ पर विचार करते हुए हमें मैथिलीशरण गुप्त के उस सवाल से भी टकराना होगा, जो उन्होंने बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उठाया था। गुप्त जी के सवाल देखने में बहुत भोले हैं। लेकिन वे हमारी सभ्यता, संस्कृति और तहज़ीब को, भारतीय मनोविज्ञान को बहुत संजीदगी से पेश करते हैं उन चुनौतियों को भी रखते हैं जिनसे हम निरन्तर दो-चार होते रहे हैं और इस विमर्श में भी वही सवाल खड़े हैं। जिनका उत्तर हमें लगातार खोजना है और सही मायने में अपने होने को, अपनी अस्मिता को और अपने भविष्य को देखना है। कभी-कभी भोले सवालों में हमारा अंतरंग और बहिरंग दोनों निर्भर करता है। हमारी ईमानदारी जिसे मुक्तिबोध ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी’ कहा करते थे, उसके जोर के बिना समय के सच से और जीवन्त सवालों से लोहा नहीं लिया जा सकता।
‘‘हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी
आओ विचारे आज मिलकर ये समस्यायें सभी’’
ये आज के दौर में भी जलता हुआ प्रश्न है। क्या ये प्रश्न हमारा पीछा नहीं कर रहे ? समूचा संसार परिवर्तन की चपेट में है जहाँ प्रकाश और चकाचैंध, अंधेरे जैसा सलूक कर रहे हों। मूल्यहीनता, मूल्य का संकट, मूल्य शून्यता और मूल्य विघटन इतनी बार हो रहा हो और कहीं कोई ठहरने को तैयार न हो, जहाँ तक नज़र जाए, नायकों की जगह खलनायकों की कतार हो ऐसे दौर में हम भाषाई एकता, मज़हबी एकता और जातीय एकता की केवल बातें कर सकते हैं, उसके लिए लड़ सकते हैं, मर सकते हैं क्यांेकि जैसा कहा जाता है कि क्रान्ति हो तो क्रान्तिकारी दूसरों के बेटे बनें हमारा बेटा नहीं। हमारा बेटा क्रांतिकारी बनेगा तो उसकी जान को खतरा है। खतरा उठाने के लिये जो तैयार है, समन्वय के लिये जो तैयार है उसी से कुछ सम्भावनायें हैं। बाकी ढोल पीटने वाले तो बहुत हैं और वे यह काम करते रहेंगे। एक लम्बे कालखण्ड से वे ढोल पीटने का काम कर रहे हैं।
कभी-कभी मुझे लगता है कि हम अनेकता से बहुत भयभीत हैं। इसीलिये उसकी याद भी करते हैं। सब्र से काम लेना चाहते हैं और अपनी पीठ भी ठोंकना चाहते हैं कि अब तो सब ठीक-ठाक है और यदि कहीं ठीक होने में सन्देह है तो केवल बातें करने से ठीक हो जायेगा। एकता की नारेबाजी करने वाले अनेक आधारभूत प्रश्नों को छिपाते और बचाते हुए तरह-तरह से जघन्य काम कर रहे हैं। यह अपने पापों को छिपाने की प्रविधि और तरकीब है, जिनसे अलगाववाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रीय समस्यायें, लूट खसोट और शोषण के दैत्याकार स्वरूप को सभी नज़र अंदाज करें। भाषा के दुराग्रहों को एक ओर समेट कर रख लें। और शब्दों के आंकड़ों में गनगनाते रहें। उनके वाणी के खेल में मस्त रहें। यह कलाबाजी अब पकड़ में आ चुकी है और इसके परिणाम भी शनैः-शनैः आने लगे हैं। विकास के शब्दजाल से अब देश की जनता को भरमाया नहीं जा सकता। सूचना विस्फोट इतना तेज है कि यथार्थ के बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते।
राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता की अवधारणाओं में भी जमीन आसमान के फकऱ् हैं। हम अपनी एकता-सुरक्षा और सम्प्रभुता के लिये अपने प्राणों की आहुतियां देते आये हैं। और आगे भी देते रहेंगे। इसके लिए हमें तथाकथित राष्ट्रभक्तों को, गर्व में डूबने उतराने वालों को या अन्य किसी को कोई प्रमाण-पत्र देने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये। राजनीति की अंधेरी घाटियों में भी और निहित स्वार्थों के पैतरों में और गर्व करने के तमाशों में ‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा’ को लगातार घायल किया है। सूचना विस्फोट, वैश्वीकरण और पूँजीवाद का जो घमासान चल रहा है। उसमें शांति, सद्भाव, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक बहुलता को बचा पाना काफी कठिन है, लेकिन असम्भव नहीं। कबीर ने सच कहा था - ‘हम न मरब मरिहै संसारा।’ हमको मिला जियावन हारा।’
राष्ट्र निर्माण के सकारात्मक तत्वों की कमी नहीं हैं। ठेका लेकर कोई राष्ट्र निर्माण करा भी नहीं सकता। यह जज्बा तो अंदर से पैदा होता है। बहुसंख्यक की राजनीतिक पैतरेबाजियां चल नहीं सकती। सभी को साथ लेकर चलना होगा। हाँ, केवल ढोल बजाने भर से कुछ नहीं होगा। भारतीय संस्कृति में धर्म और राज्य के बीच अन्तर्विरोध रहे हैं। वे नये-नये रूपों में उभरते रहे हैं। राज किशोर ने सही लिखा है कि - ‘‘धर्म निरपेक्षता की परीक्षा तभी होती है, जब राज्य में कई धर्म हों या धर्म और राज्य की मान्यतायें एक दूसरे से टकराती हों। यह टकराहट भारत में न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। उदाहरण के लिये जाति प्रथा के विरुद्ध विद्रोह होता और राज्य इस विद्रोह का समर्थन करता, क्या तब भी धर्म के साथ उसका सामंजस्य बना रहता?’’ (एक भारतीय के दुःख, पृ.15)
शिक्षा, स्वास्थ्य और चरित्र खेलने और तमाशे की चीजें नहीं हैं। संस्कृति से तो हम लम्बे अरसे से खेलते आ रहे हैं। यथार्थ की अनदेखी करते हुए हमने आदर्शों की बाड़ें लगा दी हैं। क्या यथार्थ बाड़ों से घेरा जा सकता है ? और कब तक घेरने से काम चलेगा ? ऐसे कई प्रश्न हैं। जो हमको कोंचते रहते हैं। हमारे पीछे पड़े हैं और हम उनको लगातार ठेल ठाल कर आगे निकल जाना चाहते हैं।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की लगातार दुहाई देने वाली ताकते एक अजीब तरह के नशे में हैं। उनकी नज़र में अकेले वही राष्ट्र भक्त हैं और सच्ची भारतीयता को पहचानने वाले हैं बाकी सब देशद्रोही हैं अभारतीय हैं। और हमारी समझ में किसने उन्हें राष्ट्र भक्ति का ठेका दे दिया हैं। और यदि वे स्वयं राष्ट्रभक्ति के ठेकेदार हैं तो रहे आयें उन्हें कोई हक नहीं है कि वे दूसरों की राष्ट्रभक्ति पर सवाल खड़े करें ? और यदि ऐसे सवाल वे निरन्तर खड़े करते हैं। विकास की प्रक्रिया में बाधा डालते हैं। रश्म-खराबा करते हैं। हमारे सामाजिक जीवन में ज़हर घोलने की कोशिश करते हैं तो तय है कि इस देश की जनतंत्रात्मक और धर्मनिरपेक्ष जनता और ताकते उन्हें मुहँ तोड़ जवाब देंगी और उन्हें कायदे से देख लेंगी।

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