Sunday, July 24, 2011

मेरी कविता: सपने ( My poem: Sapne)

मेरी कविता: सपने

आज रात जो देखे सपने
उन सपनों में हम थे तुम थे
सपनों में भी इक गठरी में
हमने सपने बांध रखे थे

सपनों में इक सपना हमको 
दूर देश को ले जाता था
दूर देश में था व्यापारी
सपनो का वो सौदागर था
हम तुम गाँव शहर क्या उसने
दुनियां जाल में बांध रखी थी

इक सपने में दादा दादी 
अपने घर से दूर पड़े थे
और उस घर में थे जो बच्चे 
अपनी माँ को ढूंढ़ रहे थे
पापा उनके रात और दिन भर
पेढ़ रूपए का ढूंढ़ रहे थे

आज रात जो देखे सपने
उन सपनों में हम थे तुम थे
सपनों में भी इक गठरी में
हमने सपने बांध रखे थे

अभिषेक त्रिपाठी
copyright : २००२

Tuesday, July 12, 2011

भारतेन्दु की रंगदृष्टि : सेवाराम त्रिपाठी

Sevaram Tripathi is a known writer face of progressive writers association of MP. He has contributed book of critics on Muktibodh too. By profession he is a professor in Higher Education MP. Here is an article about Bhartendu's Theatrical vision.


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पर विचार करते हुये हमें उनके युग की स्थितियों, जटिलताओं, अन्तर्विरोधों एवं संकटों को जानना-पहचानना आवश्यक है। वे सही मायने में अपने युग के निर्माता थे। डाॅ. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय के शब्दों में ‘‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी भाषा का माध्यम अपनाकर साहित्य सृजन, सम्पादन, नाट्याभिनय और निबन्ध लेखन द्वारा देश में पुनर्जागरण (रिनेसा) शुरू किया। पुनर्जागरणकारी व्यक्तित्व अनिवार्यतः अनेकायामी अनेक क्षेत्रीय या बहुविषय स्पर्शक होता है क्योंकि ऐसा व्यक्ति, जगह-जगह विधाओं और अन्य-अन्य प्रसुप्त चेतना परिसरो को जगाता है, नव चेतना का बीज वपन करता है और चिनगारियाँ छोड़ता है। ऐसा व्यक्ति मात्र विधा विशेष की दृष्टि से नहीं जांचा जा सकता क्योंकि वह एक पूरे युग चैतन्य का माध्यम या स्रोत बनता है। अतः वह युग प्रवर्तक होता है और अनेक विधाओं में नवीन प्रेरणा, नये विचार सूत्र, नये मूल्य पनपा देता है। भारतेन्दु ऐसे ही युग प्रवर्तक व्यक्ति थे। (आलोचना-79, पृष्ठ-51)
भारतेन्दु का रचनात्मक संघर्ष और कृती व्यक्तित्व मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा और हमारी सांस्कृतिक विरासत की पहचान का एक अत्यन्त समर्थ साक्ष्य है। उनकी संघर्षशीलता और जीवटता इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी हमारे लिये अभी भी ज़रूरी है और प्रासंगिक भी। उनकी रचनात्मक ऊर्जा, राष्ट्रवादिता, कला साधना और जीवन संघर्ष के कई आयाम है लेकिन उनकी केन्द्रीयता में सब तिरोहित हो गये हैं। डाॅ. राम विलास शर्मा ने उनका महत्व स्वीकारते हुये बहुत सही कहा है कि ‘‘साहित्य, पत्रकार-कला, देश सेवा-ये भारतेन्दु के लिये तीन अलग-अलग चीज़ें नहीं थी। उनका आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध था। भारतेन्दु शुद्ध कला के उपासक न थे। वह सोद्देश्य साहित्य के हामी थे इसलिये उनका व्यक्तित्व भी शुद्ध साहित्यकार का न होकर एक समाज सेवी कार्यकर्ता का था।’’ (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृष्ठ-5, 6)
भारतेन्दु का समय काफी उथल-पुथल और आपाधापी का रहा है। स्वाधीनता आंदोलन की मशाल जल उठी थी। युगीन परिस्थितियों के अनुरूप अपनी सीमाओं के अंदर, कई अन्तर्विरोधों के चलते हुये भी जनजागरण की भावना, निरन्तर विकसित होती जा रही थी। भारतेन्दु की जिज्ञासु दृष्टि एवं सुचिन्तित तथा तार्किक बुद्धि ने न केवल गुलामी की अन्तःप्रकृति की पहचान की बल्कि संकीर्णताओं अंध विश्वासों, रूढि़यों और पाखण्डों पर व्यंग्य किया। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। ‘सब धन ठोयो जात विलायत उनके व्यंग्य में किसिम-किसिम की गूँजे-अनुगूँजे हैं जिनमें युग की पीड़ा और हाहाकार को अभिव्यक्त किया गया है। नये जमाने की मुकरी में वे लिखते हैं ‘‘भीतर-भाीतर सब रस चूसै। हँसि हँसि कै तन-मन-धन जूसे जाहिर बातन में अति तेज़। क्यों सखि सज्जन, नहिं अंग रेज ‘भारत दुर्दशा’ नाटक में भारत दुर्दैव से कहलाया गया है-
भरी बुलाऊँ देश उजाड़ू महंगा करकै अन्न
सबके ऊपर टिकश लगाऊँ धन है मुझको, धन्न
मुझको तुम सहज न जानो जी/मुझे इक राक्षस मानो जी।
देश की चिन्ता, पीड़ा और उसके खि़लाफ़ उठ खड़े होने की प्रबल आकांक्षा उनके कृतित्व का ज़रूरी उपादान है। उनके लेखे राष्ट्रीय आंदोलन भाषा आंदोलन आंदोलन, साहित्यिक, सांस्कृतिक आंदोलन, सामाजिक आंदोलन मात्र शगल नहीं थे बल्कि जीवन-मरण के सवाल थे। श्री बाल मुकुंद गुप्त ने उनके लेखन की तेज, तीखा और बेधड़क लेखन कहा है। भारतेन्दु पर विचार करते हुये मुझे अक्सर कबीर की याद आती है। उनकी भाषा और व्यंग्य की प्रकृति तथा डंके की चोट बात कहने के सिलसिले में। जैसे-कबीर कहते हैं - सुखिया सब संसार है। खावै अरु सोवे। दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवें। भारतेन्दु भी हमें इसी प्रकार संबोधित करते हैं - ‘‘आबहु सब मिलिकै रोबहु भारत भाई। हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई। वैसे हर जागरण के मूल में रुदन की प्रवृत्ति होती है। राम विलास शर्मा ने उन्हें हिन्दी नवजागरण और प्रगतिशील चेतना से जोड़ते हुये एक मार्के की बात की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। भारतेन्दु ने साहित्यिक हिन्दी को संवारा, साहित्य के साथ हिन्दी के नये आंदोलन को जन्म दिया, हिन्दी में राष्ट्रीय और जनवादी तत्वों को प्रतिष्ठित किया। (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पृष्ठ 121)
मेरी समझ में भारतेन्दु का महत्व इस बात में भी है कि वे कोटे लिक्खाड़ भर नहीं थे। वे जनता के बीच गये। उनके सुख-दुख, उनकी आशाओं, आकांक्षाओं को उनकी समस्याओं को उन्होंने गहराई तक जानने- पहचानने का प्रयत्न किया और उनका निदान खोज़ने का उपक्रम भी किया। उन्होंने देखा कि समाज में कई प्रकार की विकट समस्यायें हैं जैसे निरक्षरता, ग़रीबी, रूढि़या, अंधविश्वास और अपने आपको न जान पाने का अहसास। इसलिये उन्होंने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानते हुये जन शिक्षण के रूप में भी इस्तेमाल किया। उनकी खूबी इस बात में भी परखी जा सकती है कि उन्होंने लोक प्रचलित कला माध्यमों, स्थानीय जन बोलियों और लोक प्रचलित विश्वासों का जीवन्त इस्तेमाल जनता की भलाई और बेहतरी के लिये किया।
उनकी रंग दृष्टि की पहचान इस रूप में की जा सकती है कि उन्होंने नाटक और दृश्य काव्य के बारे में गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। वे दृश्य काव्य को जीवन के लिए सबसे जीवन्त और उपयोगी माध्यम मानते हैं। उन्होंने स्वयं नाटकों में अभिनय करके उसकी शक्ति सीमा की पहचान और अर्थवत्ता की खोज की थी। उनका ‘‘नाटक अथवा दृश्य काव्य’’ नामक दीर्घ निबन्ध उनके अन्तर्जगत की बेचैनी को सूचित करता है। वे लिखते हैं - ‘‘नाटक लिखना आरम्भ करके जो लोग उद्देश्य वस्तु परम्परा से चमत्कारजनक और मधुर अतिवस्तु निर्वाचन करके भी स्वाभाविक सामग्री परिपोष के प्रति दृष्टिपात नहीं करते उनका नाटक, नाटकादि दृश्य काव्य लिखने का प्रयास व्यर्थ है क्योंकि नाटक आख्यायिका की भांति श्रव्य काव्य नहीं है।’’ वे आगे लिखते हैं - ‘‘नाटक में वाचालता की अपेक्षा मितभाषिता के साथ वाग्मिता का ही सम्यक आदर होता है। नाटक में प्रपंच रूप से किसी भाव को व्यक्त करने का नाम गौण उपाय है और कौशल विशेष द्वारा थोड़ी बात में गुरुतर भाव व्यक्त करने का नाम मुख्योपाय है। थोड़ी-सी बात में अधिक भाव की अवतारणा ही नाटक जीवन का महौषध है।’’
‘नाटक’ नामक इस प्रदीर्घ निबंध में उनका स्पष्ट मंतव्य है कि पुराने पड़ गये नियमों में परिवर्तन होना चाहिये। उनकी एक प्रसिद्ध उक्ति है ‘‘मनुष्य की परिवर्तनशील वृत्तियों को ध्यान में रखकर नाटक लिखें।’’ क्रांति और नवजागरण, संस्कार और शोधन की सृष्टि से जनता के लिये वह नाटक को सबमें सशक्त माध्यम मानते थे। उनका नज़रिया यह भी था कि दृश्य काव्य और साक्षात्कार का माध्यम होने के कारण नाटक की प्रभावशीलता बढ़ जाती है। भारतेन्दु ने कई प्रकार के नाटक लिखे हैं। मौलिक, रूपांतरित और अनूदित। इन सभी में सामाजिक, ऐतिहासिक, पौराणिक विषयों में उनकी नई दृष्टि का न केवल पता चलता वरन् शिल्प और शैली की विविधता के भी दर्शन होते हैं। उनके मौलिक नाटकों में भारत जननी वैदिकी हिंसा-हिसा न भवति, प्रेम जोगिनी, विषस्या विषमौषधम् चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी और सती प्रताप प्रमुख है।
भारतेन्दु के मौलिक नाटकों में कथ्य की नवीनता विषयों की विविधता और सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा के सूत्र हैं। विषय विषमौषधम में उन्होंने देशी राजाओं की दुर्दशा का चित्रण किया है। वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति में भारतेन्दु की धर्म के नाम पर की जाने वाली पशुबलि का विरोध करते हैं। भारत दुर्दशा में आयेगी। राज में भारत की खराब स्थिति एवं उसका निरन्तर दाम को चित्रित करते हैं। नील देवी में भारतीय नारी के आदर्श का प्रतिपादन करने का प्रयास करते हैं। अनेक नाटकों में सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति के साथ युग की समस्याओं को जनता तक पहुंचाने का उद्यम है। उनके नाटक जनकल्याण की भावना से लवरेज है। इन नाटकों में अतीत के गौरव का प्रतिपादन एवं राष्ट्रीय जागरण के बहुआयामी स्वर हैं।
हिन्दी में आचार्य भरत मुनि की तरह भारतेन्दु की प्रतिष्ठा है। उसकी मुख्य वजह यह है कि भारतेन्दु ने पहली बार बड़ी तीव्रता से नाटक की माध्यमगत, कलागत विशिष्टताओं की ओर ध्यान दिया और सामूहिक तौर पर योजनाबद्ध ढंग से नाटक और रंग कर्म को सक्रिय आंदोलन के रूप में पेश किया। उन्होंने नाटक और रंगमंच के परस्पर सम्बन्धों की अनिवार्यता पर जोर देते हुये रंग कर्म का शुभारम्भ और विस्तार किया। नाट्य मण्डलियों की स्थापना करके उन्होंने नाटक को लोकप्रियता प्रदान की। नाटक, रंगमंच और रंगकर्म के सामने जो अनेक मुकिश्ल सवाल थे मसलन नाट्य लेखन, अनुवाद, प्रदर्शन, राष्ट्रीय चेतना का विकास, लोक रूचि का परिष्कार, पारसी थियेटर के खिलाफ संघर्ष। ना ही नाट्य परम्परा का विकास, नाट्य शिल्प की नई योजना, नये रंगमंच की स्वतंत्र परम्परा को विकसित करने के लिये वे जीवनपर्यन्त संघर्षशील रहे। वे मानते थे कि ‘कला वास्तविक उन्नति का आधार है।’ उनकी मुख्य चिन्ता यह थी कि हिन्दी का कोई रंगमंच नहीं है। इस कमी को पूरा करने के लिये उन्होंने अनेक प्रयास किये।
मैं जब पढ़ता था तो हमारे पाठ्यक्रम में भारतेन्दुजी का एक प्रहसननुमा नाटक ‘अंधेर नगरी’ था। पढ़ने में यह अत्यन्त सहज है। इसकी जो चीज सबसे अधिक आकर्षित करती है वह है इसकी भाषा, इसकी जीवंतता, इसकी रवानगी और हास्य व्यंग्य का बेहद आत्मीय पुट। यह नाटक समय के साथ-साथ निरन्तर अर्थवान होता जा रहा है। एक सौ पच्चीस-तीस साल से ज्यादह इसको लिखे हुये हो गये लेकिन इसका कथ्य और खिलदड़ापन अभी भी नितान्त उपयोगी है। इसकी मार इसका व्यंग्य इसकी स्पिरिट आज भी नित नूतन है। इसकी जिस लहजे का इस्तेमाल हुआ और इसके विकास में जो खान की और ताजगी उसको कोई जवाब नहीं। उसकी अर्थ छवियां बेमिशाल है। ‘अंधेर नगरी’ पर विचार करते हुये डाॅ. राम विलास शर्मा का यह कथन बरबश याद आता है। कि ‘‘अंधेर नगरी अंग्रेजी राज का ही दूसरा नाम है लेकिन यह नाटक ‘‘अंग्रेजी राज्य की अंधेर गर्दी की आलोचना ही नहीं वह इस अंधेर गर्दी को खत्म करने के लिये भारतीय जनता की प्रबल इच्छा भी प्रकट करता है। इस तरह भारतेन्दु ने नाटकों को जनता का मनोरंजन करने के साथ उसका राजनीतिक शिक्षण करने का साधन भी बनाया। इसके गीत और हास्य भरे वाक्य लोगों की जवान पर चढ़ गये हैं और भारतेन्दु की प्रहसन कला यहां अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देती हैं।’’
भारतेन्दु अकेले ऐसे नाटककार हैं जो नाटक, नाट्यकला, रंगमंच, नाट्य भाषा, नाट्य समीक्षा, रंगकर्म के प्रति चिन्तित और रंगमंच के प्रति निष्ठावान थे। रंगकर्म, रंगमंच नाटक के विविध कला रूपों और नाट्य समीक्षा-इन सभी आयामों के प्रति उनका ऐतिहासिक योगदान है। भारतेन्दु जी की नाट्य साधना की ही यह देन है कि आज का हमारा रंगमंच, रंगकर्म और रंग कौशल जनता से सीधे जुड़ा है। हालांकि हमने युग की परिस्थितियों के अनुकूल नये-नये प्रयोग किये हैं और इन प्रयोगों का सिलसिला अभी भी जारी हैं। भारतेन्दु दिन-ब-दिन प्रासंगिक अर्थवान और महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। अपने छोटे से जीवन में उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दी जनता की जो सेवा की है। साहित्य की विभिन्न विधाओं को खुलकर खेलने का अवसर दिया है। उनके इस ऐतिहासिक अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

Sunday, July 10, 2011

मेरी कविताएं : अपना सर्वश्रेष्ठ

बड़े दिनों बाद मुझे अपनी एक डायरी मिली है जिसमे मैंने ९४-९७ तक की कुछ कविताएं और गीत लिख रखे थे. यूँ ही आज उन्हें आपके सामने लाने का मन हुआ और अब ये आपके सामने हैं. वैसे अपने संगीत और धुन निर्माण के दौरान लगातार लय और भाव के साथ रह कर मैं अपने लिए गीत  लिख ही लेता हूँ...हाँ कवि रूप पर मैं ध्यान ज़रूर नहीं देता..जबकि मेरे पापा लगातार कहते रहे हैं की तुम लिख सकते हो और तुम्हें लिखना चाहिए..आज बस उन्ही के लिए ये कविताएं समर्पित हैं........


अपना सर्वश्रेष्ठ - एक

मेरी सारी उपलब्धियां
सारा जीवन
और दुनियां
सभी अछूते हैं अभी
उससे

फिर भी
आपाधापियों के बीच
अपने अटूट विश्वास के साथ
बचा कर अपने अंत के लिए
रख लिया है मैंने
अपना सर्वश्रेष्ट


अपना सर्वश्रेष्ठ - दो 


बहता पानी नदी का
जेठ आषाढ़ की धूप में भी
बचाए रखता है 
अपनी ठंडक
अपनी आत्मा की तरह
जैसे बचा लेती है धूप 
अपनी गर्मी
बर्फीले दिनों में भी

वैसे ही कुछ दिनों के लिए
मैंने भी बचा कर रखा है
अपना सर्वश्रेष्ठ



copyright : Abhishek Tripathi

Thursday, December 30, 2010

!!!!!!!!नया साल मुबारक हो!!!!!!

हम रोशन हों जग में सूरज की तरह 
अरसे, पल में बदल जाएँ
यही राह-ए-मंजिल की हैसियत हो
सफ़र आमद हों बन के हवाओं के झोंके
कि एक यह जा, एक वह जा

कोसों दूर से दिखाई दें अपनी कर्म पताकाएं
और हम मशगूल हों रोज़ रोजाना 
नयी रानाईयाँ लाने में
बानगी हमारी, हर तरफ हो तारी
कहीं कोई ना हो बेक़रारी

इज़हार हो,
हमारा प्यार बेशुमार
बिसाल-ए-यार होता रहे
इस तकनीक की आंधी में भी
नया साल, साल के पेड़ सा मजबूत जीवन दे
कि जैसे साल की बनायीं जाती है चौखट 
घर के दरवाजों के लिए
हम बनें साल की लकड़ी, 
अपने घर के लिए, 
अपनों के लिए
!!!!!!!!नया साल मुबारक हो!!!!!!!

(अभिषेक त्रिपाठी) 

Thursday, December 9, 2010

मेकिंग ऑफ़ द ग्रेट गुरु दत्त -बिछड़े सभी बारी बारी ( Making of Great Guru Dutt- Bichhde Sabhi Baari Baari)

मेकिंग ऑफ़ द ग्रेट गुरु दत्त -बिछड़े सभी बारी बारी- 
अभिषेक त्रिपाठी
'' कोई इंसान जिंदगी में सब कुछ पा लेने के बावजूद, इतना निःस्व, इतना रिक्त कैसे हो सकता है.'' यही है केंद्र बिंदु, बिमल मित्र के उपन्यास - "बिछड़े सभी बारी बारी" का . बेहद करीने से सजाये गए लगभग तीन वर्षों के गुरुदत्तीय जीवन वृतांत के अनछुए पहलुओं पर बिमल मित्र ने अपनी कलम का कमाल दिखाया है. गीता दत्त और गुरु दत्त के रिश्तों का अधूरापन कहाँ था, कौन सी दीमक उन्हें ख़त्म कर रही थी और उसकी वजह क्या थी, इस पर बड़े विस्तार से लिखा गया है इस उपन्यास में. हालाँकि पुरे उपन्यास में वहीदा रहमान से गुरु के रिश्तों को उतना विस्तार नहीं दिया गया है जैसा की उस समय के फ़िल्मी गोसिप्स में मशहूर था, इस की एक वजह यह भी हो सकती है की वहीदा अभी जीवित हैं. वहीदा-गुरु के पेचीदा रिश्तों का एक छोटा पर महत्वपूर्ण वाकया बिमल जी ने लिखा है फिल्म गौरी के निर्माण के समय का- जब गीता दत्त की वहीदा से स्त्रियोचित जलन से उपजे प्रसंग से गुरु इतना विचलित हुए कि उन्होंने उसी वक़्त फिल्म बंद कर दी. बिमल लिखते है-
" गुरु की जिंदगी में जो कुछ झूठ था, उस दिन से सच हो गया. जाने किन अशुभ पलों में गुरुदत्त 'गौरी' फिल्म बनाने के लिए यहाँ आया था. लेकिन यह  बात कोई भी नहीं जानता कि उसी दिन से गुरु सिर से पाँव तक बदल गया. यह वही दिन था, जब अपनी सारी यूनिट को दल-बल समेत बम्बई भेज कर गुरु ने अपनी रात ग्रेट ईस्टर्न में गुजारी.
असल में वह कमरा रामू सारिया के नाम से बुक किया गया था. लोगों को यही जानकारी हुई कि वह रात रामू सारिया ने उस होटल में गुजारी.
लेकिन असली घटना कुछ और थी. बस, उसी दिन से वहीदा रहमान बदल गयी; गुरुदत्त भी बदल गया. बस , उसी वक़्त से शुरू हो गया गुरु के जीवन में अशांति का दौरदौरा! वहीदा रहमान जैसी शांत-शरीफ अभिनेत्री ने अपने जीवन को नए रूप में आविष्कार किया. उस दिन उसे पहली बार अहसास हुआ कि वह सिर्फ अभिनेत्री ही नहीं है, वह भी एक औरत है.
और गुरुदत्त? उन दिनों गुरु को और कौन संभालता? बेहद अभिमानी मर्द- गुरु! जिंदगी भर वह सिर्फ अपने ही दिल की आवाज़ सुनता आया था. उसने अपने पिता की बात नहीं सुनीं, माँ की नहीं सुनी, यार दोस्त,नाते-रिश्तेदारों के हितोपदेश पर कान नहीं दिया. इसलिए अब, वह किसकी मनाही सुनता?"


उपन्यास से मालूम होता है कि वह गुरुदत्त जो बाहर की दुनिया के लिए हंसमुख, उदार, मिलनसार और न जाने क्या-क्या था, वही गुरुदत्त, गीता के लिए अव्वल दर्जे का प्रतिक्रियावादी और रूड हो चूका था. ऐसा प्रतीत होता है कि उसने गीता को जलाने के लिए ही बाद में वहीदा से इतने गहरे रिश्ते बनाये, वह भी तब जबकि गीता-गुरुदत्त अपने प्रेम विवाह के ६ वर्ष हंसी-ख़ुशी बिता चुके थे. गीता की वहीदा-गुरु समस्या का बारम्बार ज़िक्र बिमल ने बज़रिये गीता ही किया है . वहीदा की वजह से गीता-गुरु  के बिगड़ते सम्बन्ध ने उनकी गृहस्थी में कोहराम मचा रखा था. अनेकानेक घटनाएँ बिमल ने बखूबी बयां की हैं और लगता है कि तार-तार हो रहे इस रिश्ते का कोई उपाय नहीं था. गीता-गुरु का एक प्रसंग बिमल ने लिखा है-
"गीता भी उसी दुनियां में थी, लेकिन जाने कहाँ से तो रिश्ते छिन्न-भिन्न हो गए. गुरु कभी कभी घर ही नहीं लौटता था. अगर लौट भी आता था , तो व्हिस्की लेकर बैठ जाता था. उस वक़्त उसका न तो बातचीत का मूड होता था, न क्षमता. घर लौटते ही , वह बिस्तर पर लुढ़क जाता था और सो जाने की कोशिश करता था. गीता एक बार करवट बदल कर उसका चेहरा निहारती . उसकी बगल में लेटे इंसान में  कहीं कोई हरकत नहीं होती थी.
सुबह नींद से जागकर गीता ने पूछा, ' तुम क्या मुझसे नाराज़ हो?'
'नहीं, मैं अपना चरित्र ख़राब कर रहा हूँ. ! चरित्रहीन बन रहा हूँ!'
'मतलब?'
'मतलब, तुम मेरा इम्तिहान ले रही थी न? वहीदा के नाम से जाली ख़त भेजकर, यह सोचा था कि मुझे पता नहीं चलेगा. तुमने मुझसे यह जवाब तलब किया था न कि मैं बदचलन हूँ या नहीं? इसलिए चरित्र बर्बाद करने की कोशिश कर रहा हूँ. अब से मैं और ज्यादा दारु पियूँगा. वहीदा रहमान से और ज्यादा मिलूँगा."
हालांकि पूरे उपन्यास में गीता का चरित्र अंतर्वैयक्तिक और मितभाषी के रूप में मिलता है पर वहीदा -गुरु के सम्बन्ध में गीता का चरित्र एकदम उद्विग्न और असहनशील होकर उभरता है. इससे पता चलता है कि वह इस बात को लेकर कितनी संवेदनशील थी. जाने क्या बात थी कि जितनी प्रगाढ़ता गुरु -वहीदा में के बीच नहीं थी उससे कहीं ज्यादा गुरु ने इस प्रगाढ़ता को गीता के सामने प्रदर्शित किया, सिर्फ गीता के लिए, उसी गीता के लिए जिससे गुरु बेहद प्यार करता था और जिससे गुरु ने प्रेम विवाह किया था.
बिमल मित्र के प्रसिद्द उपन्यास साहब-बीवी-गुलाम पर फिल्म बनाने के सिलसिले गुरुदत्त से उनकी मुलाक़ात एक प्रगाढ़ रिश्ते में तब्दील हो गयी थी. इसी रिश्ते के माध्यम से  गुरुदत्त के जीवन में गहरे पैठ बनाने के बावजूद बिमल  गुरुदत्त के स्वभाव और चरित्र की कुछ बातों को कभी जान न सके.गुरुदत्त की जिस ट्रेजिक जीवनधारा को शायद न के बराबर लोग जानते हैं उसे उन्होंने इस उपन्यास में बखूबी उकेरा है. बिमल कहते हैं-
" मुझे अंदाज़ा हो गया, गुरुदत्त तन-मन-धन से लोगों के साथ अड्डेबाज़ी क्यों करता है? जब वह यार-दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करता है तब वह भूल जाना चाहता है कि घर में बीवी गैरहाजिर है, बेटा अस्पताल में गुर्दे का रोग झेल रहा है या लाखों रुपये सरकार को टैक्स देना है. स्टूडियो की फ़िक्र तो खैर है ही. उपर से कहानी की चिंता. सबसे बढ़कर अनिद्रा. लेकिन उसे निद्राहीन किसने किया है? किसने उसकी रातों की नींद छीन ली है? क्यों किस वजह से उसे रात रात भर नींद नहीं आती?
हजारों कोशिशों के बाद भी मैं उसकी जुबान से इसका जवाब नहीं पा सका.
गुरु ने गिलास से घूँट भर कर कहा,' बस , इसी तरह जिंदगी के बचे खुचे दिन कट जाएँ , काफी है.'"

गुरु के जीवन के साथ साथ इस उपन्यास से मुम्बैया फिल्म जीवन की अनेकानेक बातें उजागर होती हैं. वहां अभिनेता, कलाकार, लेखक की हैसियत, वहां के लोगों के रिश्तों की कहानियां, और भी न जाने क्या क्या.
लेखकों की दयनीय स्थिति के बारे मे तो कई बार जिक्र आया है. पर इसके इतर गुरु के मन में सच्चे लेखकों के लिए बहुत आदर सम्मान था. यह बात गुरु-बिमल के प्रगाढ़ रिश्ते खुद ही बयां करते हैं. बिमल ने बारम्बार गुरु द्वारा कलकत्ता से बम्बई बुलाने और अपने उपर किये जा रहे खर्चों का हवाला दिया है. जिस पर गुरु का हमेशा कहना होता था कि फिल्म बनेगी तो कमा लूँगा. हालाँकि गुरु बिमल से काफी एक्य महसूस करते थे और इसीलिए कारण-अकारण उन्हें अपने पास बुलाते रहते थे. बिमल लिखते हैं-
"हर बार मैंने वहां जाकर पूछा- क्या बात है, बुलाया क्यों.
गुरु जवाब देता था'-फिल्म की रीलें तैयार हो चुकी हैं. ज़रा देख लें..'
फिल्म के बारे में मेरी समझ ही कितनी सी थी. लेकिन मुझे देखे बिना, जैसे उसे चैन नहीं मिलता था.....मैं कहानी लेखक ज़रूर था मगर वह मुझे पूरा पूरा सम्मान देता था. ऐसा सम्मान हिंदी फिल्म जगत में अन्य किसी भी कथा लेखक को मिला है,यह कभी सुनने में नहीं आया."
गुरुदत्त की इस खूबी के बारे में फिल्म अभिनेता विश्वजीत ने बिमल से कहा था-" आप गुरुदत्त को देखने के बाद , बम्बई के अन्यान्य प्रोडूसर के बारे में विचार ने करें." इस तरह की अनेक बातें बिमल ने लिखीं हैं बिछड़े सभी बारी बारी में.

गुरु की प्रसिद्धि के चरम दिनों और उसके व्यक्तिगत जीवन की विसंगतियों का सटीक चित्रण इस उपन्यास में गंभीरता से किया गया है. बकौल बिमल-"यह ख्याति, यह प्रतिष्ठा , यह नाम-यश- इन सबकी कहीं कोई परिसमाप्ति है? गुरु निहायत गरीब घर की संतान, धीरे-धीरे भौतिक सुख के चरम शिखर पर पहुँच गया. उसके बाद, नाम यश के साथ -साथ आ मिला, लोभ, अति फिजूल खर्ची , आ जुड़े दुश्मन, दोस्त! उन दिनों आराम जैसी कोई चीज़ नहीं रही, नींद के नाम पर कुछ भी नहीं रहा. चापलूस लोगों के झुण्ड ने आ घेरा. यह था - गुरु!
                      यही ट्रेजडी , गुरुदत्त की ट्रेजडी बैंड गयी. इसी ट्रेजडी ने गुरु को अस्थिर कर दिया. अपने चरों तरफ घिरे लोगों की ओर देखते हुए, गुरु मात्र एक स्तुति बैंड गया. स्तुति का उपादान. कद्रदानों की संख्या भी ज़रूर मौजूद थी, लेकिन बेहद कम. सभी लोग लाखों-लाख रुपयों के आकर्षण में उसके इर्द-गिर्द जुटने लगे. उसके सामने मीठी-मीठी बातों का मोहजाल. सिर्फ मीठी मीठी बातें - तुम जिनिअस हो. तुम ग्रेट हो. तुम महान हो. 

गुरु के जीवन के ट्रेजडी और इसी दौरान उसकी आत्महत्या की कोशिशों को बड़े मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के तरीके से लिखा गया है..गुरु के मरने पर बिमल ने कई सवाल खुद से पूछे जिनके जवाब वे गुरु से कभी न पा सके. और इस तरह गुरु के जीवन का एक हिस्सा, हमेशा की तरह एक मिस्ट्री ही बना रह गया है इस उपन्यास में भी. ऐसा लगता है गुरु के मन से एक एक करके लोग बिछड़ते रहे  और वह उनका बिछोह हंस हंस कर झेलता रहा, चाहे वो गीता हो, या और कोई भी. इसीलिए शायद बिमल ने इसका नाम भी रखा- बिछड़े सभी बारी बारी. और यही कहानी भी है गुरुदत्त की.
उपन्यास का फ्लैप अपने आप में बड़ा दिलचस्प है और एक तरीके से एक गहन समीक्षा भी. कुल मिलकर यह उपन्यास गुरु के व्यक्तित्व का आइना है. गुरु की जिजीविषा , संघर्ष, प्रसिद्धि, फिल्म बनाए की सनक , लेखक प्रेम, बॉलीवुड की कार्यशैली , गीता-गुरु-वहीदा संबंधों का आख्यान यह उपन्यास है. हालाँकि उपन्यास को पढने पर कई बार लगता है कि कुछ छुट गया है लिखने को, बताने को, ज्यों ज्यों आप इसको पढ़ते जायेंगे आपको लगेगा अभी भी कुछ है जो बच रहा है बताने को, और यही इस उपन्यास की खासियत भी कही जा सकती है और कमजोरी भी. पर बिमल बेलौस बात कहने से थोडा बचते से नज़र आते हैं विशेष तौर पे वहीदा के  सम्बन्ध में. फिर भी मुझे लगता है कि सम्पूर्णता में  गुरु को समझने के लिए, उनकी रचनाधर्मिता को समझने के लिए, उनके अंतर्द्वंद्व को समझने के लिए यह एक बेहद सटीक और कारगर अभिलेख की तरह गढ़ा गया आख्यान है जिसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए. पूरे कथानक को इस कदर रोचक और वैयक्तिक तरीके से उकेरा गया है कि एक बारगी ही शुरू से अंत तक इसे पढ़ा जा सकता है. इसे पढ़ते हुए गुरुदत्त को न जानने वाले के मन में भी गुरु के लिए भावनाएं जागृत हो उठती हैं और गुरु की यंत्रणा और मनःस्थिति से पाठक स्वयमेव जुड़ जाता है. 

-अभिषेक त्रिपाठी

( Making of Great Guru Dutt- Bichhde Sabhi Baari Baari- This note has been written by Abhishek Tripathi, who is a working in the field of films as Music Director. The note worths the feelings came at the time of reading the famous bengali novelist Bimal Mitra's Bichhde Sabhi Baari Baari, which is based on the life of great Indian film maker Guru Dutt)

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