मेरी कविता: सपने
आज रात जो देखे सपने
उन सपनों में हम थे तुम थे
सपनों में भी इक गठरी में
हमने सपने बांध रखे थे
सपनों में इक सपना हमको
दूर देश को ले जाता था
दूर देश में था व्यापारी
सपनो का वो सौदागर था
हम तुम गाँव शहर क्या उसने
दुनियां जाल में बांध रखी थी
इक सपने में दादा दादी
अपने घर से दूर पड़े थे
और उस घर में थे जो बच्चे
अपनी माँ को ढूंढ़ रहे थे
पापा उनके रात और दिन भर
पेढ़ रूपए का ढूंढ़ रहे थे
आज रात जो देखे सपने
उन सपनों में हम थे तुम थे
सपनों में भी इक गठरी में
हमने सपने बांध रखे थे
अभिषेक त्रिपाठी
copyright : २००२
सपनों में भी इक गठरी में
ReplyDeleteहमने सपने बांध रखे थे
अच्छा है अभिषेक....एक नवोदित कवि का स्वागत है....
सपनों में भी इक गठरी में
ReplyDeleteहमने सपने बांध रखे थे
Shaandaaar..Rachnaaa..
Shukriya Satyendr bhaiya
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