Friday, February 17, 2017

आवाज़ का जादू: जहाँ तक घटा चले: अभिषेक त्रिपाठी


वो क्या है, जो होता हमारे मन में है पर बोलता कोई और है। एक बार नहीं, हमेशा, हर स्थिति, हर समय, हर दिन। एक आवाज़, जो हमारा प्रतिनिधित्व करती है, हमारे हर मनोभाव का चेहरा है। एक प्यार भरा मन कहीं देश के एक छोर में अपने प्रियतम को याद कर रहा है शायद और एक आवाज़ उसके अन्दर गूँजती है-

तुम्हें याद करते-करते, जायेगी रैन सारी
तुम ले गये हो अपने, संग नींद भी हमारी।

कहीं दूसरी जगह, एक आवज़ बयाँ कर रही है एक प्रेयसी का दर्द, उसकी टूटती आस, बिलख और तड़प-

क़दर जाने ना, हो क़दर जाने ना,
मोरा बालम बेदर्दी क़दर जाने ना।

एक जगह एक सुहागन स्त्री घर में अपने काम में उलझी हुई, गृहस्थी में मगन हो, अपने पति के लिये गीत गुनगुना रही है-

तेरा मेरा साथ रहे
धूप हो, छाया हो, दिन हो कि रात रहे
तेरा मेरा साथ रहे

एक बहन राखी पर अपने भाई के लिये ये गीत एक बार ज़रूर सोचती है-
बहना ने भाई की कलाई पे, प्यार बाँधा है
प्यार के दो तार से संसार बाँधा है

मीरा की तरह चाहत और समर्पण वाले प्रेम का जब एक नायिका पर्दे पर अभिनय कर रही होती है तो शिव-हरि का बनाया फ़िल्म सिलसिला का ये गीत हर विरहणी का गीत बन जाता है-

जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाही तोड़ूँ रे,
तो सों प्रीत तोड़ कृष्णा, कौन संग जोड़ूँ रे..

बंगाल मंे कहीं कोई युवती मंच पर खड़ी हो अपनी प्रस्तुति दे रही है, तो ये आवाज़ है-

तोमदेर असोरे आज, एई तो प्रोथोम गईते आसा
विनिमोई चाई तोमदेर प्रोसोनसा आर भलोबासा।

यानी तुम्हारे सामने आज ये पहला गाना गाने आना हुआ। विनम्रता पूर्वक तुम्हारे प्रशंसा एवं प्यार की अपेक्षा है।

भारत की लगभग हर भाषा में ये आवाज़ विभिन्न भावों के साथ जीवन में शामिल है। इसे निश्चित तौर पर भारत के दिल की आवाज़ का जा सकता है। राष्ट्र के हर कोने में, हर भावना को बिम्बित करती ये एक ही आवाज़ है जो हर जगह, हर भेष में मौज़ूद है। यही आवाज़ जब देशभक्ति के रंग में सामने आती है तो पूरे देश की आँखों में छलछलाये आँसू अपने वीर सपूतों के लिये ढाढस और विश्वास का सबब बन जाते हैं और देश एक सूत्र में बंध, खड़ा हो गाने लगता है-

“ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी
 जो शहीद हुये हैं उनकी, ज़रा याद करो कुर्बानी”

आज के कश्मीर के हालात में यह गीत एकदम मौजूँ भी है और हर देशभक्त की आवाज़ भी।
और अचानक एक ख़बर ने मेरा ध्यान टीवी स्क्रीन की तरफ़ आकृष्ट किया। लता मंगेशकर ने अपील की है कि उनके इस जन्मदिन पर लोग उन्हें उपहार, ग्रीटिंग कार्ड्स इत्यादि भेजने की जगह वह धनराशि सैनिकों के कल्याणार्थ बनाये गये कोश में जमा करें। यह सबका उनके ऊपर एहसान होगा। वाह! इस जज़्बे को सलाम।

जी हाँ! हम लता मंगेशकर की बात कर रहे हैं। एक जादू की बात कर रहे हैं। एक आवाज़ का जादू। ये वही आवाज़ है जिसे सन् 1947-48 में फ़िल्मकार शशधर मुखर्जी ने बहुत पतली आवाज़ कह कर रिजेक्ट कर दिया था। और इसके लगभग एक साल बाद सन् 1949 में संगीत निर्देशक खेमचन्द्र प्रकाश ने इसी बहुत पतली आवाज़ के साथ धमाल मचाया। वो गीत था- 

‘आयेगा आने वाला’

‘महल’ फ़िल्म में यह गीत मधुबाला के ऊपर फ़िल्माया गया था। उस ज़माने के गानों के रिकाडर््स में गाने वाले की जगह नाम मिलता है- ‘कामिनी’। ये उस पात्र का नाम है जिस पर यह गीत फ़िल्माया गया। आप समझ गये होंगे- ‘कामिनी’ यानी मधुवाला यानी लता मंगेशकर। उस ज़माने में प्लेबैक नया ट्रेंड शुरू हुआ था और बहुत से रिकार्ड्स में गाने वाले की जगह पात्र का नाम या अभिनेता का नाम होता था। लगभग इसी गीत के साथ-साथ ही एक और फ़िल्म रिलीज हुई 1949 में। बरसात। बरसात फ़िल्म में लता के गाये गीतों ने हिन्दुस्तान में हंगामा कर दिया। बरसात पूरी फ़िल्म जैसे गीतमाला ही बनायी गयी। एक से बढ़कर एक गाने। बरसात का सब सुपरहिट। लता सुपरहिट। शंकर-जयकिशन सुपरहिट। राजकपूर सुपरहिट। यहाँ से लता मंगेशकर की आवाज़ का एकछत्र राज हिन्दी फ़िल्म जगत में शुरू होता है। इस ज़माने से लेकर आज के ज़माने तक गायकी में, संगीत में, धुनों में, फ़िल्मों में हर जगह बदलाव आते गये। नहीं बदली तो एक पसंद- 

“वो लता जी गा रहीं हैं क्या फ़िल्म में?“ 

लता नहीं तो कुछ नहीं। लता ने भी खूब गाया। हर लहज़ा। हर शक्ल। हर जगह। जिनके लिये गाया, वो धन्य हो गये। जिनके साथ गाया, वो धन्य हो गये।


यदि आप गायक बनना चाहते हैं तो लता मंगेशकर के गाये दस गाने सीख लीजिये। पूरा सीखिये। हू-ब-हू। यकीन मानिये आप निश्चित तौर पर एक मुकम्मल गायक बन सकेंगे। उनकी गायकी में इतनी ख़ासियत है। वो गले की हरकतें। वो भावों को आवाज़ से बताना। गायकी की एक ख़ास किस्म जिसे हम संगीतकार करेक्टराइजेशन या चारित्रिकता कहते हैं। हर गीत का एक चरित्र होता है, हर शब्द का एक चित्र होता है। लता मंगेशकर सिर्फ़ गाती नहीं, वो उस गीत का चरित्र गाती हैं, उस गीत का हर शब्द गाती हैं। शब्द का चित्र गाती हैं। और उस चित्र का संगीत गाती हैं। यहीं पर लता, लता हैं- और सिर्फ़ लता हैं। प्लेबैक सिंगिंग यानी लता।

“ओ सजना, बरखा बहार आयी
रस की फुहार लायी, अँखियों में प्यार लायी।”

चित्र ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आ जाता है। सलिल चैधरी का संगीतबद्ध किया एक और गीत है-

“रजनीगन्धा फूल तुम्हारे
यूँ ही महके जीवन में
यूँ ही महकी प्रीत पिया की
मेरे अनुरागी मन में।”

ध्यान से सुनियेगा ‘मेरे अनुरागी मन में’। आप समझ पायेंगे कि लता क्या है? इस लता का रंग हर संगीतकार के साथ अलग है। ख़ास बात ये है कि लता के गाये हर गीत को सुनने के बाद लगता है कि इसके लिये दूसरी आवाज़ कौन सी होती? लक्ष्मीकान्त- प्यारेलाल के इस गीत के साथ, बारिश के मौसम में, लता मंगेशकर को 28 सितम्बर पर उनके जन्मदिन की बधाई के साथ, घटा के संग चलें, बारिश में मन को भिगो दें-

“चलो सजना, जहाँ तक घटा चले
लगाकर मुझे गले
चलो सजना, जहाँ तक घटा चले।”

अभिषेक त्रिपाठी

Tuesday, October 18, 2016

एक ही ख़्वाब कई बार देखा है मैंने- अभिषेक त्रिपाठी



 Ek Hi Khwaab Kai Baar Dekha Hai Maine- Abhishek Tripathi

‘ताश के पत्तों पे, लड़ती है कभी-कभी, खेल में मुझसे
और कभी लड़ती भी है ऐसे के बस, खेल रही है मुझसे
और आगोश में नन्हें को लिये....एक ही ख़्वाब कई बार देखा है मैंन’े

ये गीत फ़िल्म ‘किनारा’ का है। शायद कम ही लोगों ने सुना होगा। इस कविता का संगीत राहुल देव बर्मन ने तैयार किया था। गुलज़ार की इस बतकही को आवाज़ दी भूपिन्दर सिंह और हेमा मालिनी ने। एकदम परफ़ेक्ट। संगीतमय बात या बातमय संगीत। भूपिन्दर सिंह को सुनना एक अलग मज़ा देता है। फ़िल्म और इससे इतर भी एक अलहदा अंदाज़ है उनका। उनकी टोनल क्वालिटी ज़रा अलग काम्बिनेशन की है। जो नाक का पुट है आवाज़ में, भारीपान के साथ एकदम बैलेन्स में। न ज़्यादा, न कम। वैसा प्राकृतिक बैलेन्स और किसी में कहाँ है। तो ये तो भगवान की देन है उन्हें। उसे उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति की बेहतरीन क्षमता से सुसज्जित कर दिया। तैयार हो गयी आवाज़, हर किस्म की अदायगी के लिये। उनका नामचीन गाना जो सबने सुना है और हर गायक इसे बड़े गर्व से गाता है-

नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है, ग़र याद रहे

सही मायनों में भूपिन्दर सिंह की आवाज़ ही पहचान है। हाल ही में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया है। उनको नवाजा़ जाना सुगम संगीत की एक पूरी पीढ़ी का, पूरे दौर का सम्मान है। उन्होंने सारे महत्वपूर्ण लोगों के साथ बेहतरीन काम किया है फ़िल्म संगीत के लिये और ग़ज़ल के लिये। संगीतकार जयदेव, मदन मोहन, आर.डी. बर्मन, ख़य्याम, सलिल चैधरी, रवीन्द्र जैन, वनराज भाटिया के कैरियर के बेहद महत्वपूर्ण गानों में भूपिन्दर सिंह के गाये गीत अपनी दमदार हैसियत रखते हैं। 



शुरुआती दौर में दिल्ली रेडियो में भूपिन्दर सिंह एक गायक और गिटारिस्ट की तरह काम करते थे। ग़ज़ल की किसी महफ़िल में संगीतकार मदन मोहन ने उनकी ग़ज़ल ‘लगता नहीं है दिल मेरा, उजड़े दयार में’ सुनी और उन्हें अपनी आने वाली फ़िल्म हक़ीक़त के एक गीत के लिये तुरंत कह भी दिया। ये गीत उस ज़माने का बेहद मशहूर गीत रहा-

‘होके मज़बूर मुझे उसने भुलाया होगा।’

ये फ़िल्म चाइना वार पर आधारित थी जिसे चेतन आनन्द ने बनाया था। इस गीत को कैफ़ी आज़मी ने जैसे दिल के खून से लिखा था। कहते हैं कि जब ये गीत रेडियो पर बजता था तो सुनने वालों के दिल डूबने लगते थे। भावनायें दिल से आँखों के रास्ते ऐसी बहती थीं कि लोग फूट-फूट कर रो पड़ते थे।

इस गीत में कई दिलचस्प बाते हैं। पहली तो मैंने बता ही दी है गीत के बारे में। दूसरी यह कि उस ज़माने के स्टार गायकों मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद और मन्ना डे के साथ भूपिन्दर सिंह अपना पहला गीत रिकार्ड कर रहे थे। हाल तो सोचिये ज़रा। फिर उस पर इतने धुरंधर गायकों के होते हुये भी पहला ही अंतरा भूपिन्दर को गाना था। मुखड़े को मोहम्मद रफ़ी शुरू करते हैं, फिर सब साथ गाते हैं और सिर्फ पन्द्रह सेकेण्ड के इंटरल्यूड के बाद सीधे भूपिन्दर सिंह का पार्ट। जनाब उस नौजवान ने गाया और क्या खूब गाया, लाजवाब गाया। ये मदन मोहन की परख थी, भरोसा था भूपिन्दर पर।

एक और दिलचस्प बात। इस गीत में स्क्रीन पर भी भूपिन्दर सिंह गाते हुये नज़र आ रहे हैं। मुखड़े से ही कैमरा उन पर और आवाज़ मोहम्मद रफ़ी की। फिर अंतरा उनकी खुद की आवाज़ में।
आगे चलके इसी भरोसे ने एक और ग़ज़ब की गीत हमें दिया है-

“दिल ढूँढ़ता है, फिर वही, फुरसत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुरे-जाना किये हुये”

इस बार मदन मोहन और गुलज़ार हैं इस गीत में भूपिन्दर के साथ। भूपिन्दर की गायी एक मशहूर ग़ज़ल है निदा फ़ाज़ली की-

“कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता”

एक गिटारिस्ट की हैसियत से भी उन्होंने कई क़माल किये हैं फ़िल्मों में। ‘हरे राम हरे कृष्णा’ फ़िल्म का गाना ‘दम मारो दम’- उसका गिटार तो याद ही होगा। वो भूपी ही हैं। चुरा लिया है तुमने जो दिल को (यादों की बारात), महबूबा-महबूबा (शोले), तुम जो मिल गये हो (हँसते ज़ख़्म) इन सब गानों में गिटार का काम भूपी का ही है। है ना सच में शानदार।

उनकी जीवन संगिनी बनीं बाँग्लादेश की मिताली मुखर्जी, जो खुद भी बेहतरीन गायिका हैं। मैं तो उनका मुरीद हूँ इस ग़ज़ल के लिये-

“देखा है ज़िन्दगी में, हमने ये आज़मा के
देते हैं यार धोखा, दिल के क़रीब आ के”

भूपिन्दर-मिताली की एक कामयाब ग़ज़ल है जो इस जोड़ी के तसव्वुर से आज भी हर किसी की जुबाँ पे सबसे पहले आती हैं-

“राहों पे नज़र रखना, होठों पे दुआ रखना
आ जाये कोई शायद, दरवाजा़ खुला रखना”

गाते वक़्त इनके चेहरे देखिये, मुस्कुराते हुये पुर सुकून, एक अद्भुत आनन्द की अनुभूति दे जाते हैं। बचपन में हम दूरदर्शन पर इन्हें हमेशा देखते थे। समझ ज़्यादा नहीं थी पर अच्छा बहुत लगता था, सो सुनते थे हमेशा। इन खुशनुमा चेहरों ने कई ग़ज़ल एल्बम हिन्दुस्तानी श्रोताओं के लिये बनाये हैं। भूपिन्दर सिंह के इस महत्वपूर्ण योगदान के लिये अभी राष्ट्रपति ने उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से नवाज़ कर हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के रूतबे को बढ़ाया है।

भूपिन्दर-मिताली का गाया एक ग़ज़ब का गीत है जिसे सबको सुनना ही चाहिये। 

“कैसे रूठे दिल को बहलाऊँ, कैसे इन ज़ख़्मों को सहलाऊँ
मितवा-मितवा, ना मैं जी पाऊँ ना मर पाऊँ“

इसमें कम्पोजीशन का कमाल ही कमाल है। मैं कहता हूँ कि इसमें हिन्दुस्तानी और पाश्चात्य संगीत की क्लासिकी का इंटेलीजेंट प्रयोग है। मुखड़े में जैसे भैरवी का पूरा आरोह है साथ-साथ उतनी ही सुन्दर शब्द रचना और अदायगी। अंतरे में एफ माइनर के प्रोग्रेशन में सी सस्पेण्डेड फोर्थ और फिर ठीक उसके बाद ई फ्लैट डामिनेन्ट सेवेन्थ की हारमनी का प्रयोग शब्दों में जान, अभिव्यक्ति और चमत्कार पैदा कर देता है। सुनियेगा ज़रूर।

ऐसा भी तो हो, मैं भी कुछ कहूँ, होठों को दबाये क्यूँ रहूँ
पलकों के तले, ख़्वाबों का नगर, जाने किसका है ये मुंतज़र
साँसो में है कैसी आग सी, कल भी जली थी आज भी
जल रही आग सी, कैसे इन शोलों को समझाऊँ


अभिषेक त्रिपाठी

Monday, September 26, 2016

शंकर जयकिशन- एक तिलिस्म, जो टूटता नहीं कभी। अभिषेक त्रिपाठी (Shankar Jaikishan- Ek Tilism- Abhishek Tripathi)

(Shankar Jaikishan- Ek Tilism- Abhishek Tripathi)
क दूसरे से अनजान दो लोग, मिलते हैं कहीं, और हो जाता है मन से मन का मेल। वे अचानक एक धूमकेतु की तरह प्रकट होते हैं, एक चमकदार रोशनी, एक नयी मदमस्त कर देने वाली हवा की तरह, जो सबकुछ भुलाकर अपने आप मंे मिला लेने की कशिश पैदा कर दे, बस एक पल में, फिर हम सुनते हैं वो गाने फिज़ाओं में गूँजते हुये-
“जिया बेक़रार है, छायी बहार है, आजा मोरे बालमा , तेरा इन्तजार है”,
“हवा में उड़ता जाये, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का”, 
“मुझे किसी से प्यार हो गया”

और ये सच है कि हर किसी को उनसे प्यार हो गया। वो मिले तो बस एक दूसरे के होकर रह गये। या कहें कि एक दूसरे में समाकर एक शख़्सियत, एक प्राण बन गये। शंकर जयकिशन। जी हाँ, दो लोगों से मिलकर बना यह नाम- शंकर जयकिशन एक शख़्सियत है, एक शाहकार है, एक ब्राण्ड है, एक किस्म है संगीत की, एक नशा है जिसमें लगभग पच्चीस वर्षों तक लगातार पूरा भारत और अनेक देशों में उनके चाहने वाले डूबे रहे। कुछ ऐसे डूबे कि तब अपने बचपन से जवानी और अब बुढ़ापे तक भी वो नशा तारी है। यही हाल अब भी है और हमेशा रहेगा। शंकर जयकिशन नाम एक तिलिस्म है, जो टूटता नहीं कभी।

सिनेमाई संगीत में क्लासिकी की बात हो या व्यावसायिकता की, नयेपन की बात हो या परम्पराओं से जुड़ाव की, रचनात्मकता की बात हो या उच्छृँखल मस्तमौला उड़ानों की, शंकर जयकिशन हर कसौटी पर एक नयी बेमिसाल इबारत लिख देते हैं। भारतीय सिनेमाई संगीत की दिशा और दशा तय करने का सबसे ज़्यादा श्रेय यदि शंकर जयकिशन को दे दिया जाए तो कोई ग़लत बात नहीं होगी। उन्होंने वो किया जो पहले किसी ने नहीं किया था और उनके बाद भी कोई उनकी तरह नहीं कर सका फ़िल्म संगीत में।

सीधे-सीधे यदि संगीत की कुछ विशेषताओं की बात करें तो भारतीय रागों पर आधारित इतनी सुगम धुनें इन्होंने बनाई हैं कि बड़े-बड़े उस्ताद भी मुरीद हो जायें। एक ही राग पर आधारित दो अलग-अलग गीतों, जाने कहाँ गये वो दिन (फ़िल्म-मेरा नाम जोकर)  और “दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर” (फ़िल्म- ब्रह्मचारी) को सुनेंगे तो आप समझेंगे कि एक ही मूड और एक ही राग शिवरंजनी होते हुये भी दोनो का रंग कितना अलग है। शंकर जयकिशन सिर्फ़ धुनों के तिलिस्म ही नहीं रचते, वो अपने म्यूजिक अरैंजर सेबेस्टियन और दत्ताराम के साथ आर्केस्ट्रा से एक सदाबहार सिम्फनी पैदा करते हैं, ऐसी सिम्फनी जिसकी तुलना आप पाश्चात्य संगीत के किसी भी बड़े कंपोजर जैसे स्ट्रँाविन्सकी, टैकियोकोव्स्की, बैख़, मोज़ार्ट या बीथोवन की रचनाओं से कर सकते हैं। शंकर जयकिशन के अनेक गानों में शुरुआती संगीत यानी प्रील्यूड अपने-आप में इसकी मिसाल हैं। यदि आप सुनें “मुझे कितना प्यार है तुमसे”, “दिल तेरा दिवाना है सनम”, “दोस्त दोस्त न रहा”, “अलबेले सनम”, “आ जा रे आ ज़रा”, “रात के हमसफ़र”, तो आप मेरी इस बात को ज़रूर मान जायेंगे। ऐसे प्रील्यूड्स उनके बाद बहुत कम ही बने। उनके अरैन्जर सेबेस्टियन पाश्चात्य संगीत में सिद्धहस्त थे और अनेक पाश्चात्य संगीतकारों की रचनाधर्मिता का प्रभाव उनके आर्केस्ट्रा अरैन्जमेन्ट में दिखाई भी पड़ता है, ऐसा मेरा मानना है।

शंकर जयकिशन के आर्केस्ट्रा में पाश्चात्य संगीत की क्लासिकी की बहुत ही सुंदर चीज़ें जैसे आॅब्लिगेटो, काउंटर प्वाइंट, काउंटर मेलोडी इत्यादि, जो एक आधारभूत हार्मोनिक संरचना के लिये आवश्यक है, भी बड़े महत्वपूर्ण रूप से प्रयोग की गई हैं। शंकर जयकिशन के समय में कार्यशील रहे कुछ म्यूजीशियन्स और अरैन्जर्स से मेरी मुम्बई प्रवासों के दौरान मुलाकातें हुईं हैं और वे सब इन खूबियों के बारे मे बातें करते नहीं थकते। शंकर जयकिशन की ज़्यादातर धुनों में एक और ख़ास बात है कि उनके मुखड़ों और अंतरों में कोई क्राॅस लाइन नहीं है। क्राॅस लाइन धुन का वो हिस्सा या टुकड़ा है जिसके बाद वापस मुखड़ा शुरू होता है। इसके साथ-साथ ही साधारण मेलोडी के छोटे-छोटे टुकड़े ही उनके मुखड़े हैं, इन्टरल्यूड और अंतरे भी बिल्कुल वैसे ही। मेरी बात को समझना हो तो आप सुनियेगा- 

‘तेरा मेरा प्यार अमर, फिर क्यों मुझको लगता है डर’ 
या फिर 
‘ऐ फूलों की रानी, बहारों की मलिका, तेरा मुस्कुराना ग़ज़ब हो गया।’

ये हैं धुनों के रूप में सबसे साधारण और बेहद अर्थपूर्ण वाक्य। ऐसे गानों की भरमार है शंकर जयकिशन के पास।

पृथ्वी थियेटर से दोस्ती और फिर फ़िल्म बरसात के 1949 मंे आने के बाद से एक लम्बा अरसा शंकर जयकिशन की जयगाथा से भरा पड़ा है। ज़ाहिर है ऐसी सफलता बहुत से लोगों को रास न आयी। फिर न जाने कितने अच्छे-बुरे किस्से भी नुमाया हुये। लगभग 1963 के आसपास, ऐसी बहुत सी घटनायें और किस्से हैं जिन्हें बाॅलीवुड में आज भी ज़िन्दा शक्ल मंे सुना जा सकता है। लेकिन इस सब के बाद भी इनका नाम और ऊँचा होता गया। आसमाँ शंकर जयकिशन के आगे झुकता गया।

और एक दिन, जो न सोचा था किसी ने, वो हो गया। वो गाना जिसे अभी-अभी ही तो बनाया था, वो सच हो गया- “ज़िन्दगी इक सफ़र है सुहाना, यहाँ कल क्या हो किसने जाना”। 12 सितम्बर, 1971, दोपहर करीब एक बजे के आसपास का वक़्त, एक सुरीला नगमा चलते-चलते थम गया। शंकर का “मेरा जय” इस दुनिया से रूख़सत हो गया।

जयकिशन का जाना फ़िल्म इंडस्ट्री में एक भूचाल लेकर आया। उस दिन से जैसे सब कुछ बदल गया। इसके बाद का समय इस शाहकार के अवसान की कहानी भर है। ऐसी नहीं है कि धुनें अच्छी नहीं बनी, संगीत अच्छा नहीं बना। बस वक़्त का पहिया कुछ अलग तरह से घूमने लगा था। इस दौर मंे लगभग सारी फ़िल्में कुछ कमाल नहीं कर सकीं बस। और उनका जो मका़म था वो जाता रहा।

आज हम जयकिशन जी को उनके जाने के 45 साल बाद याद कर रहे हैं तो उनकी ज़िन्दादिली, दोस्ती और खुशमिज़ाजी को भी याद करें। उन्हें एक्टिंग का शौक था । कुछ फ़िल्मों में उन्हें स्क्रीन पर देखा जा सकता है। देखना चाहते हो तो उनके ही गाने “मुड़-मुड़ के न देख मुड़-मुड़ के” और “ऐ प्यासे दिल बेजु़बाँ” में देखियेगा। खूबसूरत इतने थे कि पार्टियों में नौजवान लड़कियाँ उस ज़माने के मशहूर अभिनेताओं को छोड़कर जयकिशन के इर्द-गिर्द जमा हो जातीं थी। राजकपूर ने उनका नाम ही छलिया रख दिया था। उस ज़माने के रेडियो सीलोन के बेहद मशहूर लोगों में से एक एनाउन्सर गोपाल शर्मा, 1957 से ही जयकिशन से काफी घुले मिले थे। अभी हाल ही में मेरी उनसे टेलीफोन पर जयकिशन के बारे में लम्बी चर्चा हुई। उन्होंने जयकिशन के जो कुछ किस्से मुझे सुनाये, उसी में से एक किस्सा उन्हीं की जुबानी- “ ये किस्सा मुझे जयकिशन ने बताया था। एक बार जयकिशन अरब मंे किसी होटल में बैठे हुये थे और एक मातृरूप की एक मुस्लिम औरत इनके पास आयी और आकर इनकी बलायें लेते हुये चश्मे बद्दूर कह रही थी। ये शब्द इनके दिमाग में बैठ गया। शायद उर्दू का होने के कारण इसका मतलब उन्हें समझ नहीं आया। जब ये हिन्दुस्तान वापस आये, तो इन्होंने हसरत जयपुरी से पूछा- ‘यार ये चश्मे बद्दूर का क्या मतलब होता है।’ हसरत बोले- ‘इसका मतलब होता है, खूबसूरत चेहरे को किसी की नज़र न लगे। फिर जयकिशन बोले, तो इसका गाना बनाया जाये, ये नया शब्द हो और फिर हसरत और जयकिशन ने गाना बनाया- 

“तेरी प्यारी-प्यारी सूरत को किसी की नज़र लगे, चश्में बद्दूर”
गोपाल शर्मा ने ऐसे अनेक किस्से अपनी प्रकाशित आत्मकथा- ‘आवाज़ की दुनिया के दोस्तों’ में बड़ी खूबी से बयान किये हैं।

जयकिशन खुशमिज़ाज ऐसे थे कि क्या कहने। कहते हैं कि एक बार पेरिस के किसी क्लब में रात के समय किसी लड़की की सितारों से सजी चमक-दमक वाली ड्रेस देखकर जयकिशन, हसरत जयपुरी से गुनगुनाते हुये कहा- “बदन पे सितारे लपेटे हुये, ऐ जाने तमन्ना किधर जा रही हो”, तब हसरत ने तुरंत ही आगे कह दिया- “जरा पास आओ तो चैन आ जाए”। पेरिस से लौटकर उन्होंने यह गीत तुरंत रिकार्ड किया। आप समझ सकते हैं कि वो अपने काम को कितने मिज़ाज से करते थे।

उनको याद करते हुये बहुत से गाने बरबस याद आ रहे हैं-

‘ऐ मेरे दिल कहीं और चल, गम की दुनिया से दिल भर गया’ 
‘याद किया दिल ने कहाँ हो तुम, झूमती बहार है कहाँ हो तुम’ 
‘बहारो फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है’ 
ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर, के तुम नाराज़ मत होना’ 
‘मुझको अपने गले लगा लो, ओ मेरे हमराही’ 
‘पंछी बनूँ उड़ती फिरूँ, मस्त गगन में’

कहते हैं कि बैकग्राउण्ड म्यूजिक और फ़िल्मों के टाइटल सांग वो बहुत ही सटीक बनाते थे। नौजवान पीढ़ी में कम ही लोगों को मालूम होगा कि सत्तर के दशक में शंकर जयकिशन ने हिन्दुस्तानी रागों तोड़ी, कलावती, शिवरंजनी, पीलू आदि को जाज़ म्यूजिक के रूप में एक एल्बम में प्रस्तुत किया, जिसका नाम था- ‘रागा जाज़ स्टाइल’। मौका लगे तो एक बार सुनिएगा ज़रूर।

जयकिशन मुम्बई के चर्चगेट उपनगर के गेलार्ड रेस्टोरेन्ट में अपने दोस्तों के साथ ज़्यादातर देर शाम के वक़्त में बैठते थे। उनकी टेबल उनके जाने के बाद एक महीने तक उनके लिये रिजर्व करके रखी गई थी। और उस पर लिखा था ‘रिज़वर््ड फाॅर मिस्टर जयकिशन’। ये उनकी दोस्ती और लगाव के लिये बहुत बड़ा सम्मान था। शंकर और जयकिशन की दोस्ती ऐसी थी कि जयकिशन के अंतिम दिनों में, जब वे लिवर की गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे, शंकर रोज़ मुम्बई के महालक्ष्मी मंदिर में जाकर पूजा करते थे और प्रसाद देकर घंटो उनके पास बैठे रहते थे। मैंने शंकर के कुछ रेडियो इन्टरव्यू सुने हैं, उन सब मंे शंकर अपने साथी जयकिशन के लिये कहते हैं- ‘मेरा जय’। ये सुन के लगता है कि उन दोनों के बीच दरार और मनमुटाव जैसी कहानियाँ कितनी मनगढं़त और बेमानी रही होंगी। ऐसी अनेक कहानियाँ, अनंत किस्से हैं। शंकर जयकिशन फैन्स ऐसोशिएशन इंटरनेशनल नाम की संस्था, एक समूह है जो लगातार उनके बारे में चर्चा करती है और जिसके माध्यम से बहुत सी जानकारियाँ शंकर जयकिशन के बारे में इंटरनेट पर उपलब्ध हो सकी हैं। 

शंकर जयकिशन की बात हो और बिना राजकपूर के, ऐसा सम्भव नहीं है। राजकपूर की फ़िल्म बरसात, राजकपूर के लिये सफलता के जो कीर्तिमान रच गई और जिसका योगदान आर0के0 फ़िल्म्स को स्थापित करने में महत्वपूर्ण माना जा सकता है, उसमें एक शानदार काम्बिनेशन भारतीय फ़िल्म इतिहास को मिला। बरसात, फ़िल्म इण्डस्ट्री में प्रतिभा, हुनर, कला, व्यावसायिकता और बेमिसाल हीरों की बरसात लेकर आई। इस एक ही फ़िल्म से अचानक ही एक नई ऊर्जा का जैसे विस्फोट सा हुआ और राजकपूर, शंकर जयकिशन, हसरत जयपुरी, लता, मुकेश, शैलेन्द्र जैसे सितारे फ़िल्मी आसमान पर छा गये। इस फ़िल्म से टाइटल सांग की शुरुआत भी मानी जा सकती है। सम्भवतः भारतीय फ़िल्म संगीत का पहला कैबरे गाना ‘पतली कमर है तिरछी नज़र है’ भी इसी फ़िल्म ने दिया। इसी फ़िल्म में शंकर जयकिशन के साथ एक बहुत बड़े आर्केस्ट्रा का आगाज़ सिनेमाई संगीत में व्यवस्थित रूप से दिखाई देना शुरू हुआ। इसके बाद शंकर जयकिशन ने राजकपूर की लगभग सभी फ़िल्मों का संगीत दिया, जब तक कि जयकिशन जीवित रहे। राजकपूर इनके साथ राजकपूर की प्रमुख फ़िल्मों में बरसात के अलावा बूट पाॅलिश, जिस देश में गंगा बहती है, श्री 420, चोरी-चोरी, आवारा, संगम और आख़िरी फ़िल्म मेरा नाम जोकर प्रमुख हैं।

उनकी कुछ एक फ़िल्मों को छोड़कर लगभग सारी फ़िल्में ऐसे-ऐसे गीतों, ऐसी-ऐसी धुनों के साथ आयीं जो अपने आप में रसिकों के लिये एक अनिवार्य स्वाद की तरह हैं तो संगीत सीखने वालों के लिये भी एक उम्दा पाठ की तरह। शंकर जयकिशन के एकलव्य जैसे न जाने कितने शार्गिद इस दुनिया में होंगे जिन्होंने उनके संगीत को सुनकर बहुत कुछ सीखा होगा और बहुत नाम भी कमाया होगा।  जयकिशन के जाने के बाद ये जादू बरकरार नहीं रह सका। कारण कुछ भी हो, पर शंकर जयकिशन ब्राण्ड की सफलता के साथी और गवाह रहे बड़े साथियों, जिनमें राजकपूर भी शामिल हैं, ने उनसे किनारा कर लिया। कहते तो यहाँ तक है कि आर0के0 और कुछ अन्य लोगों ने इस दौर में उनकी बनाई पुरानी धुनों को उस जमाने के उगते सूरजों के नाम के हवाले कर दिया। हालांकि शंकर इस ब्राण्ड यानी शंकर जयकिशन के साथ ही लगभग 15 वर्षों बाद तक भी काम करते रहे और फिर भी इन सब बातांे के खि़लाफ़ उन्होंने कोई बात नहीं कही। तो शायद असलियत अनकही है आज भी। बदलते दौर और उसमें संगीत के बदलते मिज़ाज को शायद जयकिशन भाँप रहे थे पर उनके जाने के बाद जिस तरह फ़िल्में और उनका संगीत बाक्स आॅफिस पर पिटे तो लगता है नये जमाने की ज़रूरतें समझना इतना आसान नहीं था। लगभग शुरुआत से ही उनके साथ रहे म्यूजिक अरेंजर सेबेस्टियन डिसूजा भी जयकिशन के जाने के बाद 1974 के आसपास अपने घर गोवा वापस लौट गये और इस तरह हिन्दुस्तानी सिनेमाई मौसिकी मंे आर्केस्ट्रा को एक बड़े कैनवास पर डिजाइन करने वाला एक महत्वपूर्ण स्तंभ भी इस ब्राण्ड से अलग हो गया। सेबेस्टियन का घर वापस जाना जैसे ताबूत में आख़िरी कील की तरह था।

शंकर जयकिशन जैसे विशालकाय नाम को इतने कम शब्दों में समेटना कतई संभव नहीं है। इस संगीत के बारे में बातें शुरू होती हैं तो खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं। ‘आह’ फ़िल्म का एक गीत है- 

‘सुनते थे नाम हम, जिनका बहार से, देखा तो डोला जिया झूम-झूम के’।

वाकई ग़ज़ब है भई। चाहे धुन सुनिये, बोल सुनिये, लता मंगेशकर को सुनिये, ढोलक सुनिये, हारमोनियम सुनिये। और कितनी ही बार सुनिये। उस पर प्रील्यूड और इन्टरल्यूड, विश्वास मानिये, आपका कभी मन नहीं भरेगा। झूमते रहेंगे बस मन ही मन में। शंकर जयकिशन की किसी फ़िल्म के सारे गाने आप देखिये सब एक से बढ़कर एक मिलेंगे। फ़िल्म ‘दिल एक मन्दिर’ में ही देखिये- ‘याद न जाये, बीते दिनों की,.........’ या फिर ‘रुक जा रात, ठहर जा रे चंदा, बीते न मिलन की बेला’, उसके बाद टाइटल सांग ‘दिल एक मन्दिर है’, और भी हैं अभी। याद है ये गीत ‘जूही की कली मेरी लाडली’ और ‘हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे’। एक ही फ़िल्म में इतने सारे सुपरहिट गाने। है ना कमाल। शंकर जयकिशन अपनी ज़्यादातर फ़िल्मों में ये कमाल करते हैं। प्रिंस, जंगली, राजकपूर, सीमा, एव इवनिंग इन पेरिस, संगम, आह, अनाड़ी..............कितने नाम गिनाता जाऊँ।
शंकर जयकिशन की कितनी ही खासियतें हैं। रोज़ नयी मिलती जायेंगी। एक तिलिस्म, जो टूटता नहीं कभी, रोज़ कुछ नयी बातें, पुराने गीत जो फिर से नये लगने लगते हैं। चाहे उनका आर्केस्ट्रा हो, चाहे उनकी धुन हों, चाहे उनके वाल्ट्ज स्टाइल वाले रिदम पर बात हो या ढोलक के ठेकों पर। भारतीय, लैटिन, पाश्चात्य, अरबी संगीत के प्रभाव की बात हो या फिर लोक संगीत के कमाल की। गायकी की बात हो या भावों की। हर जगह लाजवाब

शंकर जयकिशन ने शारदा से बहुत से गीत गवाये, वो एक खास किस्म की आवाज़ की गायिका हैं, पर ये संगीत की समझ का कमाल है कि उनके कितने ही गाने सुपरहिट हुये। ‘तितली उड़ी’ शारदा का पहला और सर्वाधिक पापुलर गाना है।  शारदा के कुछ और गीत सुनियेगा- ‘चले जाना ज़रा ठहरो, किसी का दिल मचलता है’  ‘अलबेले सनम तू लाया है कहाँ’, ‘हुस्नेे ईरान’। आप भले शारदा की गायकी से कदापि प्रभावित न हों, पर शंकर जयकिशनी फ्लेवर के क़ायल हो ही जायेंगे। ये उनके संगीत निर्देशन की ताक़त है।

शंकर जयकिशन ने बहुत से नये कलाकारों को अपने साथ काम करने का मौका दिया और उनकी दस्तक और आमद से हम सबको परिचित कराया। लता मंगेशकर के अलावा, सुमन कल्याणपुर, मुबारक बेगम, शारदा, सुबीर सेन जैसे गायकों से सुपरहिट धुने प्रस्तुत करके शंकर जयकिशन ने इन्हें पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

शंकर जयकिशन को अपने जीवन से दूर रखना किसी के बस की बात नहीं। हर मौके पर उनका कोई गीत सामने आकर खड़ा हो जाता है और हमारी अपनी आवाज़, अपना भाव, अपना जज़्बा बना जाता है। जयकिशन की पुण्यतिथि के बहाने ही सही, इस मौके पर उन्हीं के गीत से अपनी बात खत्म करता हूँ-

तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे 
जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे।
हाँ तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे।

Article by Abhishek Tripathi

(Keywords- Shankar Jaikishan, Tilism, Abhishek Tripathi, Hindi Film Music, SJ,)
“मेरा जय”- तेरा मेरा प्यार अमर- अभिषेक त्रिपाठी

Tuesday, April 5, 2016

!! हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा !!- डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी

Hindi Hain Hum, Watan Hai Hindostaan Hamara!! 

हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा !!

 डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी

‘‘मनुष्य की जीवनी-शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सब कुछ में मिलावट है, सब कुछ अविशुद्ध। शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दल जिजीविषा।’’  (हजारी प्रसाद द्विवेदी)

हमारा यह दौर बेहद पेचीदगियों से भरा है। आज़ादी के बाद समूची दुनिया से हमारे सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक सम्बन्ध बने हैं। हमने बाहर की हवाओं के लिए अपनी खिड़कियाँ भी खोली हैं। विज्ञान, टेक्नोलाॅजी, उद्योग और नए भारत के निर्माण की नई-नई प्रविधियाँ भी खोजी हैं। ‘आज़ादी और जनतंत्र’ ये दो ऐसे मूल्य हैं जिन्हें निरन्तर विकसित करना हमारा मूल ध्येय और प्रतिज्ञा रही है, और इन्हीं की सफलता पर भारत की अस्मिता है और इन्हीं के बलबूते भारत का मान-सम्मान और उसकी विकास यात्रा का समूचा दारोमदार है। यह सही है कि हमारे विकास का नया ‘समाजशास्त्र’ बहुत साफ-सुथरा नहीं है। इसमें कई तरह के घाल-मेल और आपाधापियां हैं। और तरह-तरह के मंसूबों का घमासान भी। साम्राज्यवादी,, पूंजीवादी, साम्प्रदायिक, मजहबी एवं संकीर्णतावादी शक्तियों ने हमारी विकास प्रक्रिया को लगातार बाधित किया है। एक ओर हम जड़ताओं, ग़लत परम्पराओं, अमानवीय एवं क्रूर ताकतों से संघर्ष कर रहे हैं तो दूसरी ओर अलगाववादी, क्षेत्रीयतावादी, आतंकवादी प्रवृत्तियां भी लगातार सक्रिय है। शहरीकरण की समस्या, ग़रीबी और बेरोज़गारी की समस्या और स्वार्थ की सोच प्रणाली ने हमें लगातार सकते में डाला है। हम विकास की ऐसी हवाओं में उड़ रहे हैं जिनकी अपनी कोई जमीनी सच्चाई नहीं है। है तो केवल एक तरह का अनजाना हौव्वा। जनसंख्या की समस्या इतनी विस्फोटक है कि हमारी विकास प्रक्रिया लगातार प्रश्न-चिह्नों का सामना कर रही है। महाजनी सभ्यता और भाषाई खेल ने हमें कई तरह से तोड़ा है। ऐसे अनेक सवाल हैं जिनसे हम स्थाई रूप से घिरे हुए हैं। पूरनचन्द्र जोशी लिखते हैं कि ‘‘भारत के राष्ट्रीय संकट की तीव्रता व गहराई का इस बात से पता चलता है कि आज़ादी और उसके बाद के दौरान जिस विज़न, दिशा, मूल्यों और कार्यक्रम पर राष्ट्रीय सहमति थी उन सब को चुनौती देने वाली उस राष्ट्रीय सहमति को विघटित करने वाली और राष्ट्र को विपरीत दिशा में ले जाने के लिए कटिबद्ध ताकतें आज हासिए से केन्द्र में स्थापित हो रही है।’ (स्वप्न और यथार्थ)
बदलाव और विकास के रूपक और माॅडल भी कई तरह के आये हैं, लेकिन अभी तक कोई राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पाई। यह एक अलग कोटि का तकाज़ा है। जाहिर है कि हमारे एजेण्डे बदल गए हैं, रास्ते बदल गए हैं, मानक बदल गए हैं, उनके कार्यभार बदल गए हैं। यहाँ तक की उनकी नीयत बदल गई है, हालांकि कमोवेश समस्यायें वही हैं जो पहले हुआ करती थी। चारित्रिक अधोपतन, कथनी-करनी का फकऱ् और गर्व में डूबने-उतराने के मंजर अलग हैं। इनमें ऐसी गनगनाहट भरी हुई है जो सब धरा कराया औंधा कर सकती है। जनतंत्र और विकास, आज़ादी और नये स्वप्न, समाज और उसके विविध रूपांतरण, मीडिया के नित नये करतब न जाने कितने प्रश्न हैं, जिनके उत्तरों को तलाशने में हम अरसे से जुटे हैं। विज्ञापन और बाज़ार ‘ग्लोबलाईजेशन’ और पूँजी का सार्वजनिक महोत्सव, विकास प्रक्रिया की अंधी दौड़, आचरण की शुचिता को निरन्तर पलीता लगा रहा है। विकास किसका और किस तरह का। हमारा ध्यान केवल विकास पर है। वह भ्रष्टाचार से हो या चारित्रिक और नैतिक अधोपतन से। आज के दौर में इसके कोई मायने नहीं बचे। सब विकास चाहते हैं इसलिये चारों ओर विकास के लिये कोहराम है, मारामारी है, लीपापोती है। हर हाल में विकास के आंकड़ों का खेल जारी है। राष्ट्रीयता के तमाम नारों के बीच हम सार्वजनिक जीवन में लहूलुहान, किंकर्तव्यविमूढ़ और मूल्य हीनता के शिकार हैं। विकास की समूची प्रक्रिया ‘धींगामुश्ती’ में चल रही है। और हम बिना किसी मतलब का ‘जम्प’ लगा रहे हैं।
भारतीय संस्कृति के जो महान मूल्य हैं, अनेकता में एकता, साझापन, मानवीय मूल्यों पर अखण्ड विश्वास। सभी धर्मों के प्रति आदर, हर वंचित, उपेक्षित और सताए गए के प्रति करुणा एवं दया। अंतिम छोर पर खड़े अंतिम आदमी को विकास की धारा से जोड़ना। इन सबके बावज़ूद हमारी सांस्कृतिक समृद्धि के मानक धीरे-धीरे अवमूल्यित हुए हैं। उसकी वजह यह है कि हमने उन शक्तियों के खि़लाफ़ सघन प्रतिरोध नहीं किया, जो हमें पीछे की ओर ले जाने का, लगातार भटकाने का प्रयास करती रही हैं। अखिलेश के शब्दों में ‘‘हमारे समय की यह त्रासदी ही है कि वह असंख्य विपत्तियों की चपेट में है, लेकिन उससे कहीं अधिक भयानक त्रासदी है कि विपत्तियों का प्रतिरोध नहीं है। इधर हम अपनी राष्ट्रीय लड़ाइयां बिना लड़े हार रहे हैं। अपसंस्कृति, नव साम्राज्यवाद, संवेदना का विनाश किसी से हम लड़े नहीं। यह और भी कुत्सित है कि लड़ने की कौन कहे लोग उनका स्वागत कर रहे हैं। खुशी से चिल्ला रहे हैं, खिलखिला रहे हैं।’’ (वह जो यथार्थ था)
सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करने वाले लेखकों, कलाकारों ने हमेशा सच का साथ दिया है। सत्ता के बरक्स उन्होंने जनता की चाहतों, विश्वासों और संघर्षों को वाणी दी है। हम लेखकों का संघर्ष इस बात के लिए हमेशा रहा है बकौल मुक्तिबोध कि ‘जो है उससे बेहतर चाहिए।’ जाहिर है कि जीवन में जितने गड्ढे हैं उनको भरने की संवेदना साहित्य में होती है। समय के साथ साहित्य का ‘कटआउट’ बहुत बड़ा हो जाता है। हमारी चुनौती यह भी है कि हम ऐसे समय में हैं जहाँ सब कुछ बिक रहा है और इस बिक्री के ‘महारास’ में हम अपने को भी बिकने से नहीं बचा पा रहे हैं। बाजार का हिंसक और बेशर्म रूप हमारे सामने है। बाजार की बर्बरता ने कई ऐसे प्रश्नों को हमारे सामने उपस्थित किया है कि हम डरे-डरे से हैं। असमंजस में जी हलाकान होता है फिर भी इससे जूझना है, जूझना पड़ेगा, जूझने के अलावा कोई विकल्प नहीं जैसा कि मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा था -
‘‘पड़ा हूँ दो दुनिया के बीच
द्वन्द्व में, ये दुनिया जो हो गई मृतप्राय
और दूसरी
जन्म लेने में अक्षम
नहीं कोई ठौर टिकाऊँ सिर जहाँ’’
इस व्यथा के समानांतर लेखकों ने लगातार सक्रिय प्रतिरोध किया है। ऐसा नहीं है कि कुछ लेखक अपवाद स्वरूप न बिके हों। उन्होंने लाभ और लोभ के लिए अपनी पहचान का खातमा भी कर दिया हो। लेकिन बहुसंख्यक रचनात्मकता अभी भी प्रतिरोध कर रही है और आगे भी प्रतिरोध जारी रखेगी। लेखक जनता का पक्षधर होता है और इसीलिये वह सत्ता के खि़लाफ़ जनता के संघर्षों को वाणी देता रहा है। और जिस दिन वह अपनी इस बुनियादी प्रतिज्ञा से कन्नी काट लेगा। उस दिन वह छलिया और स्वार्थी हो जायेगा। अपना अस्तित्व समाप्त कर लेगा।
प्रश्न है कि देश भक्ति, सामाजिक समरसता, सर्वधर्म समभाव और सांस्कृतिक समृद्धि इन पर विमर्श करने के लिए हमें अपनी सच्चाइयों को, अपने आपको भी टटोलना पड़ेगा। केवल जज्बों भर से बात नहीं बन सकती। इन सबके लिए हम संघर्ष कर रहे हैं लेकिन पूंजी बाज़ार, विज्ञापन, मीडिया और सूचना विस्फोट की कार्यवाहियां इतनी तेज़ हैं। वक्त के थपेड़े इतने तेज हैं कि हम किसी तरह टिके रह पाएं और अपने सांस्कृतिक वैभव को सुरक्षित कर पाएं। यह कठिन काम है। यह केवल आदर्श हो सकता है, हक़ीक़त नहीं। जिस दौर में गला काट प्रतियोगितायें हो रही हों। धर्म के नाम पर, भाषा के नाम पर रक्तपात हो रहे हों और एग अलग तरह का मनोविज्ञान बन रहा हो, स्वार्थों के खेल चल रहे हों। जहां अपराधीकरण, आतंकवादी कार्यवाहियां नंगा नाच कर रही हों और हम विकल्पहीनता की त्रासदी से लगातार जूझ रहे हों, जहाँ स्वार्थ ही विचारधारा बन गई हो। प्रजातंत्र अपने स्वार्थों के अनुकूल झुकाने और हाँकने के षड़यंत्र हों, ऐसे समय में उन आदर्शों के बलबूते क्या बहुत ज्यादा बातें करनी चाहिए। हालांकि कुछ लोगों को बातें करने का रोग है। हाँकने की आदत हैं। हमें बहुत सोच-समझकर बहुत आलोचनात्मक ढंग से सोचना पड़ेगा और जो विकृतियां आ गई हैं, उनसे संघर्ष करना पड़ेगा। हमारा सांस्कृतिक समुच्चय केवल बातों भर में नहीं हो उसे व्यवहार में लाये बगैर हम इस देश की बहुलता को नहीं बचा सकते। यह चुनौती हमारे सामने हैं और यह कोई छोटी चुनौती नहीं है।
भारतीय संस्कृति केवल अतीत भर को नहीं देखती। वह वर्तमान और भविष्य को भी देखती है। यह दौर ऐसा है जिसमें खुले मन, खुले दिल और दिमाग से समन्वय के रास्ते में बहुत सारी बाधाये हैं। भारतीय संस्कृति में उदारता का जो तत्व रहा है धीरे-धीरे उसमें संशय के नाग फुफकारने लगे हैं। एक ऐसा तबका सक्रिय हुआ है जो अपने भर को देशभक्त कहता है बाकी से घृणा करता है और दूसरों को देशद्रोही मानता है, गर्व में गनगनाने के सुभीते बहुत पाल लिये गये हैं। खूब छाती ठोंककर गर्वोक्तियों के विस्फोट किये जा रहे हैं और उनका नतीजा ठनठन गोपाल है। मेरी समझ में भारतीयता ज़्यादा से ज़्यादा बिखर जाने में, ज़्यादा से ज़्यादा खुले मन में ही सम्भव है। ‘‘हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा’’ पर विचार करते हुए हमें मैथिलीशरण गुप्त के उस सवाल से भी टकराना होगा, जो उन्होंने बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उठाया था। गुप्त जी के सवाल देखने में बहुत भोले हैं। लेकिन वे हमारी सभ्यता, संस्कृति और तहज़ीब को, भारतीय मनोविज्ञान को बहुत संजीदगी से पेश करते हैं उन चुनौतियों को भी रखते हैं जिनसे हम निरन्तर दो-चार होते रहे हैं और इस विमर्श में भी वही सवाल खड़े हैं। जिनका उत्तर हमें लगातार खोजना है और सही मायने में अपने होने को, अपनी अस्मिता को और अपने भविष्य को देखना है। कभी-कभी भोले सवालों में हमारा अंतरंग और बहिरंग दोनों निर्भर करता है। हमारी ईमानदारी जिसे मुक्तिबोध ‘कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी’ कहा करते थे, उसके जोर के बिना समय के सच से और जीवन्त सवालों से लोहा नहीं लिया जा सकता।
‘‘हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी
आओ विचारे आज मिलकर ये समस्यायें सभी’’
ये आज के दौर में भी जलता हुआ प्रश्न है। क्या ये प्रश्न हमारा पीछा नहीं कर रहे ? समूचा संसार परिवर्तन की चपेट में है जहाँ प्रकाश और चकाचैंध, अंधेरे जैसा सलूक कर रहे हों। मूल्यहीनता, मूल्य का संकट, मूल्य शून्यता और मूल्य विघटन इतनी बार हो रहा हो और कहीं कोई ठहरने को तैयार न हो, जहाँ तक नज़र जाए, नायकों की जगह खलनायकों की कतार हो ऐसे दौर में हम भाषाई एकता, मज़हबी एकता और जातीय एकता की केवल बातें कर सकते हैं, उसके लिए लड़ सकते हैं, मर सकते हैं क्यांेकि जैसा कहा जाता है कि क्रान्ति हो तो क्रान्तिकारी दूसरों के बेटे बनें हमारा बेटा नहीं। हमारा बेटा क्रांतिकारी बनेगा तो उसकी जान को खतरा है। खतरा उठाने के लिये जो तैयार है, समन्वय के लिये जो तैयार है उसी से कुछ सम्भावनायें हैं। बाकी ढोल पीटने वाले तो बहुत हैं और वे यह काम करते रहेंगे। एक लम्बे कालखण्ड से वे ढोल पीटने का काम कर रहे हैं।
कभी-कभी मुझे लगता है कि हम अनेकता से बहुत भयभीत हैं। इसीलिये उसकी याद भी करते हैं। सब्र से काम लेना चाहते हैं और अपनी पीठ भी ठोंकना चाहते हैं कि अब तो सब ठीक-ठाक है और यदि कहीं ठीक होने में सन्देह है तो केवल बातें करने से ठीक हो जायेगा। एकता की नारेबाजी करने वाले अनेक आधारभूत प्रश्नों को छिपाते और बचाते हुए तरह-तरह से जघन्य काम कर रहे हैं। यह अपने पापों को छिपाने की प्रविधि और तरकीब है, जिनसे अलगाववाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रीय समस्यायें, लूट खसोट और शोषण के दैत्याकार स्वरूप को सभी नज़र अंदाज करें। भाषा के दुराग्रहों को एक ओर समेट कर रख लें। और शब्दों के आंकड़ों में गनगनाते रहें। उनके वाणी के खेल में मस्त रहें। यह कलाबाजी अब पकड़ में आ चुकी है और इसके परिणाम भी शनैः-शनैः आने लगे हैं। विकास के शब्दजाल से अब देश की जनता को भरमाया नहीं जा सकता। सूचना विस्फोट इतना तेज है कि यथार्थ के बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते।
राष्ट्र और राष्ट्रीयता, भारत और भारतीयता की अवधारणाओं में भी जमीन आसमान के फकऱ् हैं। हम अपनी एकता-सुरक्षा और सम्प्रभुता के लिये अपने प्राणों की आहुतियां देते आये हैं। और आगे भी देते रहेंगे। इसके लिए हमें तथाकथित राष्ट्रभक्तों को, गर्व में डूबने उतराने वालों को या अन्य किसी को कोई प्रमाण-पत्र देने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये। राजनीति की अंधेरी घाटियों में भी और निहित स्वार्थों के पैतरों में और गर्व करने के तमाशों में ‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा’ को लगातार घायल किया है। सूचना विस्फोट, वैश्वीकरण और पूँजीवाद का जो घमासान चल रहा है। उसमें शांति, सद्भाव, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक बहुलता को बचा पाना काफी कठिन है, लेकिन असम्भव नहीं। कबीर ने सच कहा था - ‘हम न मरब मरिहै संसारा।’ हमको मिला जियावन हारा।’
राष्ट्र निर्माण के सकारात्मक तत्वों की कमी नहीं हैं। ठेका लेकर कोई राष्ट्र निर्माण करा भी नहीं सकता। यह जज्बा तो अंदर से पैदा होता है। बहुसंख्यक की राजनीतिक पैतरेबाजियां चल नहीं सकती। सभी को साथ लेकर चलना होगा। हाँ, केवल ढोल बजाने भर से कुछ नहीं होगा। भारतीय संस्कृति में धर्म और राज्य के बीच अन्तर्विरोध रहे हैं। वे नये-नये रूपों में उभरते रहे हैं। राज किशोर ने सही लिखा है कि - ‘‘धर्म निरपेक्षता की परीक्षा तभी होती है, जब राज्य में कई धर्म हों या धर्म और राज्य की मान्यतायें एक दूसरे से टकराती हों। यह टकराहट भारत में न होना दुर्भाग्यपूर्ण है। उदाहरण के लिये जाति प्रथा के विरुद्ध विद्रोह होता और राज्य इस विद्रोह का समर्थन करता, क्या तब भी धर्म के साथ उसका सामंजस्य बना रहता?’’ (एक भारतीय के दुःख, पृ.15)
शिक्षा, स्वास्थ्य और चरित्र खेलने और तमाशे की चीजें नहीं हैं। संस्कृति से तो हम लम्बे अरसे से खेलते आ रहे हैं। यथार्थ की अनदेखी करते हुए हमने आदर्शों की बाड़ें लगा दी हैं। क्या यथार्थ बाड़ों से घेरा जा सकता है ? और कब तक घेरने से काम चलेगा ? ऐसे कई प्रश्न हैं। जो हमको कोंचते रहते हैं। हमारे पीछे पड़े हैं और हम उनको लगातार ठेल ठाल कर आगे निकल जाना चाहते हैं।
भारतीय सभ्यता और संस्कृति की लगातार दुहाई देने वाली ताकते एक अजीब तरह के नशे में हैं। उनकी नज़र में अकेले वही राष्ट्र भक्त हैं और सच्ची भारतीयता को पहचानने वाले हैं बाकी सब देशद्रोही हैं अभारतीय हैं। और हमारी समझ में किसने उन्हें राष्ट्र भक्ति का ठेका दे दिया हैं। और यदि वे स्वयं राष्ट्रभक्ति के ठेकेदार हैं तो रहे आयें उन्हें कोई हक नहीं है कि वे दूसरों की राष्ट्रभक्ति पर सवाल खड़े करें ? और यदि ऐसे सवाल वे निरन्तर खड़े करते हैं। विकास की प्रक्रिया में बाधा डालते हैं। रश्म-खराबा करते हैं। हमारे सामाजिक जीवन में ज़हर घोलने की कोशिश करते हैं तो तय है कि इस देश की जनतंत्रात्मक और धर्मनिरपेक्ष जनता और ताकते उन्हें मुहँ तोड़ जवाब देंगी और उन्हें कायदे से देख लेंगी।

Sunday, August 23, 2015

!! बाल रंगमंच: सीमायें और सम्भावनायें !! डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी (Child Theatre: Limitations and Possibilities- Dr. Sevaram Tripathi)

!! बाल रंगमंच: सीमायें और सम्भावनायें !! (डाॅ. सेवाराम त्रिपाठी)
(Child Theatre: Limitations and Possibilities- Dr. Sevaram Tripathi)



        यूं तो रंगमंच बहुत व्यापक आयामों में प्रयुक्त होने वाला शब्द है। यह समूची सृष्टि के भावों का अनुकरण करता है। धर्म, क्रीड़ा, शांति, हंसी-खुशी, संघर्ष, अनीति, संयम सब इसके भीतर हैं। यह उत्साह जगाने वाला है। हर प्रकार के भावों, रसों, रंगों, रूपों, रूपकों और प्रतिमानों को अपने भीतर जज्ब करने वाला भी है। भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में कहा है कि ‘‘यह नाट्य उत्तम, मध्यम और नीच सभी प्रकार के लोगों के कार्यों से सम्बद्ध है और सबको हितकारी उपदेश देने वाला तथा धैर्य, क्रीड़ा, सुख देने वाला भी है। ..... यह नाट्य दुःख से अति परिश्रम से क्लान्त शोक से संतप्तजनों को समय पर विश्राम देने वाला होगा। ..... न कोई ऐसा ज्ञान है न शिल्प है न विद्या न कोई ऐसी कला है न योग है और न ही कोई कार्य ही है जो इस नाट्य में न प्रदर्शित किया जाता हो।’’
        रंगमंच के दायरे में सब कुछ है। वह जीवन भी है और जीवन की पुनर्रचना भी। नाटक बनने से लेकर यानी स्क्रिप्ट से लेकर उसके प्रदर्शन तक हमारे जीवन, समय, समाज और सम्भावनाओं की जितनी भी रंग छवियां हैं जितनी भी शिल्प-संरचनायें हैं। संघर्ष, द्वन्द्व और कलायें हैं, इस नाट्य में सबके लिये पर्याप्त स्थान है। उन सबकी तेजस्वी भूमिका भी। इसकी ग्रहण क्षमता इतनी व्यापक, विशाल एवं विपुल है कि यह कहीं से कुछ भी ग्रहण करने में समर्थ है। शेक्सपियर ने संसार को रंगमंच कहा है तो उनका आशय जीवन्तता, ग्राहयता, संलग्नता, विशालता और मनुष्य के संघर्ष के विविध आयामों एवं कोणों से रहा है। जिस तरह हमारा जीवन निरन्तर विकासमान, गतिमान, ऊर्जावान और परिवर्तनशील होता है। उसी तरह रंगमंच भी। रंगमंच में सब कुछ को अपने में समो लेने की शक्ति और क्षमता है जैसे कि हमारे जीवन में होती है। इसलिये जीवन और रंगमंच एक दूसरे के पूरक और समानधर्मा भी हैं।
        रंगमंच इकहरी कला सृष्टि नहीं है। वह कलाओं का समुच्चय है। समूची कलाओं की आवाजाही और भूमिकायें रंगमंच में सम्प्रेषण को जीवन्त बनाती है और उसकी ग्रहण क्षमता को बहुस्तरीयता प्रदान करती हैं। रंगमंच में अमूर्त को मूर्त करने की क्षमता है। नाट्यालेख को निर्देशक की योग्यता और अभिनेताओं की अभिनय क्षमता और विभिन्न कला संरचनाओं के द्वारा जीवन्त करने की क्षमता है। अर्थात् वह शरीर में प्राण फूंकने उसे जीवन्त गतिशील और सार्थकता में रूपान्तरित भी करता है। दोनों की अनिवार्यता भी है।
         रंगमंच की अनेक शैलियां हैं। उसकी विकास यात्रा के अनेक सोपान हैं। लोक रंगमंच से लेकर पारसी थियेटर, रामलीला, ब्रेख्त शैली, शेक्सपियर शैली, नौटंकी, स्वांग, नाचा विदेशिया, रास, यात्रा, भवाई माच, भांण, शास्त्रीय रंगमंच, एब्सर्ड रंगमंच, नुक्कड़ रंगमंच आदि ने इस जीवन की पुनर्रचना वाले आयामों को इतनी सघनता और विस्तार दिया है कि इसे हम समग्र रंग आंदोलन कह सकते हैं। इसमें सीखने-सिखाने, जीवन की नस-नस को पहचानने, उसमें डूब जाने, समा जाने यानी जीवन को नये सिरे से प्रस्तुत करने के विभिन्न रूपों को चाक्षुष बनाने की क्षमता है। रंगमंच के विराट आंदोलन में कई तरह के स्वर हैं, कई तरह की प्रविधियां भी हैं। रंग आंदोलन में अतीत से लेकर वर्तमान तक कई प्रकार के प्रभाव रहे हैं। सबका अपना-अपना महत्व है। ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’ कई तरह की भाव छवियां रंग छवियां भी रही हैं कि - केशव कहि न जाय का कहिये/देखत तब रचता विचित्र अति समुझि मनहिं मन रहिये। मैं इन विभिन्न स्वरों में से एक स्वर को प्रतीक के तौर पर रखना चाहता हूं और वह स्वर है नुक्कड़ रंगमंच का। जिसे कुछ समूह और अति आग्रही रंगमंच ही नहीं मानना चाहते। सफदर हाशमी के अनुसार - ‘‘आधुनिक राजनैतिक नुक्कड़ रंगकर्म एक सामाजिक जरूरत की पैदाइश है। जनवादी आंदोलन से जो जन संस्कृति पैदा होती है नुक्कड़ नाटक उसी का एक अंग है। पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था ने जो सांस्कृतिक नेटवर्क खड़ा किया है वह जनवरी संस्कृति के प्रचार का माध्यम नहीं बन सकता। (स्वातंत्रयोत्तर युगीन परिप्रेक्ष्य और नुक्कड़ नाटक, पृ.116) इसी तरह ब्रेख्त नाटक और रंगमंच को उन लोगों की आवाज़ बना देने के पक्ष में थे, जिन्हें व्यवस्था बोलने नहीं देती। नुक्कड़ रंगमंच जनता का जनता द्वारा जनता के लिए खेलने, प्रशिक्षित करने वाला और उनके जीवन में काम आने वाला रंगकर्म है। इसीलिये इसे अपार ख़्याति भी मिली।
        जनता से सीखने-सिखाने वाली जीवन की बहुआयामी, बहुस्तरीय बहुकोणीय कला माध्यम के रूप में रंगमंच का कोई और विकल्प हो ही नहीं सकता। सम्भवतः इसीलिये जब से मनुष्य है उसका जीवन है उसके कार्य व्यवहार हैं तब से यह माध्यम है अपनी कमियों खूबियों से संघर्षरत जीवन के विविध आयामों के साथ। भरतमुनि के पहले भी रंगमंच रहा होगा। उसका कोई न कोई ड्राफ्ट भी रहा होगा नहीं तो भरतमुनि का इतना बहुस्तरीय नाट्य शास्त्र सम्भवतः नहीं रचा जा सकता था। यह प्रश्न मेरे लिये महत्वपूर्ण है।
        जहां तक बाल नाटकों और बाल रंगमंच का सवाल है उसका विकास अभी भी हासियें में हैं। प्रश्न है कि जब बाल साहित्य, बाल नाटकों और बाल रंगमंच को गम्भीरता से नहीं लिया जाता तो उसके स्तर गति और विकास की चिन्ता किसे हो सकती है। बाल नाटकों की स्थिति भी कमज़ोर है। नाटक सम्प्रेषण की दृष्टि से सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यम है। बाल नाटकों का लिखा जाना भी बहुत कम है, फिर तो बाल रंगमंच की कल्पना करना उसके विकास का सपना देखना, दूर की बात है लेकिन यह सपना हम देख रहे हैं। बाल नाटकों की विशिष्टता यह होती है कि वे उनकी संवेदना, सीखने की कला, उनके अनुभव संसार में शामिल होकर सामाजिक, सांस्कृतिक जटिलताओं को और जीवन की आपाधापियों को बिना मस्तिष्क में अधिक जोर दिये दुनिया को जान-पहचान सकते हैं। साहित्य और कला माध्यमों में बाज़ार ने, सूचना संसार ने घेरेबंदी कर रखी है। इन वास्तविकताओं से जूझना बाल नाटकों के लेखकों को बहुत सतर्क होकर सोचना पड़ेगा। बच्चों में अनुकरण की क्षमता गजब की होती है। उनके भाव जगत में उनके निर्दोष मन में हर चीज़ का असर बहुत ज़्यादा होता है वह रेत पर खिंची लकीर की तरह नहीं वरन् पत्थरों में अंकित छवियों की तरह होता है। बाल मन में अश्लील और कुरूप छवियों के प्रभाव भी जल्दी असर डालते हैं। मुझे लगता है कि लोक कथायें, लोक प्रसंग, लोक रुचियों से निर्मित नाटक जिनमें यथार्थ का निष्कलुष अंकन हो तो वे जीवन छवियों को शिद्धत के साथ अभिव्यक्त कर सकते हैं। वैसे भी बच्चों की दुनिया निराली होती है। उनका मन निर्मल, उनमें जिज्ञासा, अकूत प्रभाव ग्रहण की क्षमता अकूत होती है। उनकी पकड़ भी तेज़ होती है। बाल नाटकों की भाषा सरस, सरल और सहज होनी चाहिये। उसमें जटिलता के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये। बाल नाटकों को खेले जाने वाला रंगमंच आकर्षक चटक रंगों से सजा, आंखों को सुखकर प्रीतिकर हो, नृत्य संगीत से युक्त हो। छोटे-छोटे संवाद हो, जिनमें मानवीय संवेदना का घोल हो। ताकि बच्चे इसे आसानी से हृदयंगम कर सकें। क्योंकि उनके मन पर इन सभी के स्थायी प्रभाव हेाते हैं। एक चुनौती बाल नाटकों के निर्देशन की भी है। बड़े बुजुर्ग जब तक बाल मनोविज्ञान, बाल सौन्दर्य बोध और जीवन में कल्पना शक्ति की भूमिका को श्रेष्ठ सृजनात्मकता के लिये कारगर होती है। इससे जुड़े बिना यथार्थ के प्रस्तुतीकरण की समझ के बिना उनके रंगमंच को विकसित नहीं किया जा सकता।
        रंगमंच भी एक खेल की तरह है। बच्चों के नाटकों का लेखन एवं निर्देशन करने के लिये उनकी संवेदन क्षमता की समझ भी होनी चाहिये। मैं ‘तारे जमीन पर’ फिल्म के उन दृश्यों, भंगिमाओं और दृष्यावलियों की याद दिलाना चाहता हूँ, जिसमें कला का अध्यापक बच्चे को जब सही ढंग से समझ लेता है। उसकी कमज़ोरियों को उसके अंदर छिपी क्षमता को तो वही बच्चा जो सभी के लिये हास्य का पात्र था, मजाक बन गया था। वही बच्चा सर्वाधिक प्रभावी व्यक्तित्व बन जाता है। निर्देशक के रूप में रचनात्मकता के स्तरों का समझदारी से प्रयोग करना यह एक बड़ी चुनौती होती है। बच्चों के नाटक लिखने वाले चाहे जितने बड़े हों, समझदार हों लेकिन तर्क और समस्याओं के हल बच्चों की दुनिया के ही होंगे। जो शब्दों के इस पार से उस पार तक की यात्रा करेगा। कल्पना की दुनिया की असीमित परिभाषाओं के परे जाकर। लेखक और निर्देशक को रंगों की समझ, बालमन पर पड़ने वाले प्रभावों की समझ जितनी ज़्यादा होगी बाल रंगमंच की सम्भावनायें उतनी ही बढ़ेगी। बच्चों का कथानक और उसका समूचा रूप उन्मुक्त होना चाहिये। बच्चा कहीं भी अपने को बंधा हुआ या जकड़ा हुआ अनुभव न करें यदि ऐसा हो सका तो रंगमंच बालकों के लिये एक खेल से ज़्यादा कुछ न होगा और उनका अभिनय जीवन्त मूर्त एवं अभूतपूर्व होगा। रंगमंच जहां नाटक खेला जा रहा है वह बच्चे के लिये कार्यशाला भी है और मुक्त स्थल भी है। वह उसके लिये कोई क़ैदख़ाना नहीं। बल्कि खेल का हरा-भरा उन्मुक्त  मैदान है, जहां बालक अपने मनभावन खेल खेलने जा रहा है।
        बच्चों के नाटकों के सन्दर्भ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के अनुभव कुछ इस तरह हैं - ‘‘बच्चे को यथार्थवादी रंगमंच की ज़रूरत नहीं है। वह एक तिनके से जितनी बड़े कल्पना कर सकता है बड़े नहीं कर सकते। उसे कल्पनाशील सादा रंगमंच चाहिये। एब्सर्ड होने में उसे और मजा आता है। वह प्रकृति, पशु, पक्षी, जानवरों, टीमटाम, नाच गान, शोरगुल सबसे बड़ी लगन से जुड़ता है। अतः उसके लिये नाटक लिखना एक विशाल कैनवैस के सामने खड़ा होना है। यदि आप उस कैनवैस के सामने ख़ुद को छोटा महसूस न करें तो बच्चे के नाम पर वह कैनवैस छोटा नहीं होगा।’’
        मुझे लगता है हमें बच्चों को केवल बच्चा समझने से बचना चाहिये। उनको अंदर बहुत कुछ पकता है। अनेक प्रकार के प्रभाव होते हैं, चित्रमयता होती है, सीखने की जैसी उद्दाम इच्छा उनमें होती है, उतनी बड़ों में नहीं। उनकी अनगढ़ता में कला की, जीवन की जितनी सुगढ़ता होती है, उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता। उनके लिये न तो चैखटे बनायें न उन्हें सीमित संसार में क़ैद करने की चेष्टा करें। सर्वेश्वर जी यह भी मानते हैं वह कम में बहुत कुछ ग्रहण कर लेगा बशर्ते आप उसके साथ मिलकर रच रहे हों। लोक नाटकों के रंगारंग उपकरण आपके पास हैं। क़लम आपके हाथ में है उनके साथ बैठिये, रचिये। दुनिया में और कहीं मुक्ति देने पर मुक्ति मिलती हो या न मिलती हो पर बच्चे के लिये ऐसा रचकर जिससे कि वह मुक्त हो, रचनाकार अवश्य खुद को मुक्त महसूस करता है। (बाल साहित्य रचना और समीक्षा, पृष्ठ 117-18)
        बाल रंगमंच अभी भी समस्याओं से घिरा हुआ है। बड़े लोगों का इस क्षेत्र में दख़ल बहुत है। ध्यातव्य है कि बाल रंगमंच बच्चों का खुला संसार हो उनको अभिनय की छूट हो, उसमें वेशभूषा ज़्यादातर उन्हीं के अनुकूल हो। पर्दा उठाने गिराने की समस्या न हो। बच्चे सहज रूप में संवाद अदायगी करें तो बेहतर हो। ऐसा नहीं है कि प्रारम्भ से लेकर अभी तक का बाल रंगमंच शून्य में है। यह समझना भूल होगी। नर्मदा प्रसाद खरे ने नवीन बाल नाटक माला (1955) केशवचंद वर्मा - बच्चों की कचहरी (1956) चचा छक्कन के ड्रामे (कुंदसिया जैदी) वे सपनों के देश से लौट आये (भानु मेहता) प्रतिनिधि बाल एकांकी (1962) सिद्धनाथ कुमार कृत आओ नाटक खेलें (1962) चुने हुये एकांकी (1965) सर्वेश्वर दयाल सक्सेना कृत ‘भों भों खों खों’ आदि प्रमुख हैं। ये तो कुछ नमूने हैं। बाल नाटकों का बाल रंगमंच का बहुविध प्रयोग हिन्दी संसार में हुआ है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिये। बालकों के चहुमुखी विकास में उनके व्यक्तित्व निर्माण में रंगमंच की उपयोगिता किसी से छिपी नहीं है। केन्द्रीय रंगमंच की तरह बाल रंगमंच भी दुर्दशाओं उपेक्षाओं में फंसा हुआ है। रंगमंच के ज्ञाता बाल रंगमंच की ओर समुचित ध्यान नहीं दे रहे हैं। उनके मन में या तो यह दुविधा है कि यह तो कमतर रंगमंच है जबकि सही बात तो यह है कि बाल रंगमंच ही रंगमंच की बुनियाद है। इसी से बड़ों का रंगमंच शक्तिशाली होना इसे हमें नहीं भूलना चाहिये।
        यह सुविख्यात तथ्य है कि बच्चों में सीखने की जानने की प्रश्नांकन करने की और अभिनय करने की नैसर्गिक प्रतिभा होती है। उन्हें उनकी क्षमता के अनुरूप, उनकी योग्यता के अनुरूप यदि निर्देशित किया जाता है तो वे अपनी अपार सम्भावनाओं को चुटकी बजाते हुए सिद्ध कर देते हैं। क्योंकि उनकी प्रतिभा का प्रस्फुटन सहज, सरल और स्वाभाविक ऊर्जा से भरा होता है। जाहिर है कि वयस्कों का रंगमंच या मुख्य धारा का रंगमंच भी उतनी आसानी से जिन चीज़ों का प्रदर्शन नहीं कर पाता। बच्चे उन्हें स्वाभाविक रूप में कर डालते हैं। दरअसल रंगमंच अपने व्यक्तित्व को और जीवन के बहुविध आयामों को व्यक्त करने की जीवन्त कला है। जहां बनावटीपन नहीं होता। बच्चों में गीत, संगीत, नृत्य और खेल के प्रति सहज ही आकर्षण होता है। वे दूसरों की देखादेखी उनकी बढि़या नकल कर डालते हैं। उनमें वेशभूषा के प्रति, साज-सज्जा के प्रति एवं रंगों के प्रति गहरा आकर्षण होता है। रंगमंच तो सभी कलाओं का समुच्चय है। बालक के मन में अपने आपको उजागर करने प्रश्नांकन करने की अद्भुत क्षमता होती है। बड़ो के थोड़े से निर्देश पर वे आश्चर्यचकित करने वाले कारनामों को अंजाम दे सकते हैं। यह कोई रहस्य नहीं है। अनेक बार बच्चों ने हमें साबित भी किया है।
        बाल रंगमंच के प्रति अभी समुचित रूप से शासन प्रशासन और इसमें सम्बद्ध पक्षों का इतना ध्यान नहीं गया। जितना जाना चाहिये था। इस उदासीनता के सामाजिक, सांस्कृतिक कारणों के अलावा कहीं न कहीं हमारी गहरी उपेक्षा और तिरस्कार की भावना है। अब समय की ज़रूरत है कि हम बाल रंगमंच की ओर ध्यान दें उसे पेशेवर और गैर पेशेवर रंगमंच की तकनीकों एवं शिल्प विधि का प्रयोग करते हुये उन्नतिशील बनायें और यदि ऐसा हो सका तो मुख्यधारा के रंगमंच को भी ताकत और गति मिलेगी। श्री प्रसाद ने चिन्ता व्यक्त करते हुये लिखा है कि ‘‘बाल रंग कर्म प्रायः वयस्क रंगकर्म का अनुवर्ती रहा है। हिन्दी में वयस्क रंग गतिविधि जब भी बढ़ी है बाल रंगमंच का भी उत्थान हुआ है। आज बड़ों का रंगमंच भी अपनी चमक खो रहा है। फलतः बाल रंगमंच भी फीका हो रहा है। नाटक की परिणति है मंचन। बाल रंगमंच के अभाव में बाल नाट्य सृजन भी कमज़ोर हो गया।’’
        रंगमंच एक जटिल श्रम साध्य और बहुमुखी माध्यम हैं। उसके लिये अभी तक देश के किसी प्रांत में उसे वैकल्पिक विषय के रूप में भी स्वीकृत नहीं किया गया। बाल नाटकों का न लिखा जाना कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि बाल रंगमंच ही अभी तक सक्रिय नही है, उसके बारे में किसी को कोई चिन्ता नहीं है। नेमिचन्द्र जैन ने बहुत वर्षों पहले इसे रेखांकित किया था। केवल प्रशिक्षण, प्रदर्शन भाषा की शुद्धता बोलने की तकनीक और संवादों की अदायगी में रंगमंच का प्रयोग सार्थक हो सकता है। नाटक के पूर्वाभ्यासों में कई तरह के प्रयोग किये जाते हैं। दृश्य सज्जा, रूप सज्जा, ध्वनियों के प्रति आकर्षण रंगों रूपाकारों के प्रति जुड़ाव, संगीत और नृत्य की भाव-भंगिमायें बच्चे आसानी से सीख सकते हैं। नेमिजी का यह मानना सही है कि - ‘‘नाटक के प्रदर्शन में भाग लेना बालक के व्यक्तित्व को भी कई प्रकार से समृद्ध सम्पन्न करता है। नाटक में भाग लेकर बच्चे समुदाय में रहना, काम करना और परस्पर सहयोग करना सीखते हैं। इसी प्रकार कई स्तरों पर समय का पालन करने का भी उन्हें अभ्यास हो सकता है। न सिर्फ़ प्रदर्शन और पूर्वाभ्यास के लिये ठीक वक़्त पर पहुंचना ज़रूरी होता है, बल्कि नाटक में अनेक कार्य किसी निश्चित संकेत पर तुरन्त शुरु कर देने पड़ते हैं, उसमें ढील होने पर नाटक बिखर जाता है।’’ (बाल साहित्य रचना और समीक्षा, पृ.106)
        बाल रंगमंच के विकास में यूं तो कमियां बहुत हैं लेकिन यह भी नहीं माना जा सकता कि अभी तक कुछ काम ही नहीं हुआ। इस निषेधात्मक प्रवृत्ति से हमें बाहर आना है। छठवें दशक में बाल रंगमंच की सक्रियता बढ़ी है। स्कूलों में वार्षिक समारोहों के लिये दिल्ली जैसे महानगरों से लेकर कस्बों, गांवांे, नगरों में किसी न किसी रूप में बाल रंगमंच की सक्रियता रही है। हां, उन नाटकों के कुछ निर्देशन खानापूर्ति के रूप में हुये और कहीं-कहीं पूर्वाभ्यासों में मेहनत से, लगन से काम हुये और उन्हें भरपूर सराहना मिली। इसके अलावा दिल्ली बाल रंगमंच की स्थापना से इस रंग आंदोलन को नई गति और ऊर्जा मिली है। ‘भूमिका’ नामक संस्था को भुलाया नहीं जा सकता। सुषमा सेठ के निर्देशन में चिल्ड्रेंस क्रियेटिव थियेटर ने बहुत उपयोगी काम किये हैं। ब.ब. कारंत, कविता नागपाल और हरजीत ने भी प्रदर्शन कराये हैं। नेमिचंद जैन का मानना है कि ‘‘जब तक बाल रंगमंच हमारे जीवन में एक आवश्यक और स्वतंत्र कार्य के रूप में मान्यता नहीं पाता तब तक स्थितियों में कोई खास सुधार सम्भव नहीं है। ..... हिन्दी में वयस्कों के रंगमंच की भांति यहां भी एक विरोधाभास लगातार दीख पड़ता है। नाटकों में ये बातें सक्रिय बाल रंगमंच के बिना नहीं आ सकतीं और सक्रिय बाल रंगमंच अच्छे नाटकों के बिना नहीं बन सकता। (बाल नाटक: घर से रंगमंच तक, पृ.110)
        बाल रंगमंच के बारे में इतने प्रश्न हैं, इतनी शंकायें हैं कि क्या कहें और क्या न कहें ? लेकिन निराश होने की ज़रूरत नहीं है। बाल रंगमंच हो रहे हैं। बाल नाटक लिखे जा रहे हैं। कमी-वेशी की समस्या एक अलग समस्या है। रंगमंच वैसे भी बड़ी साधना, सक्रियता, कल्पनाशीलता, त्याग और उत्कट ईमानदारी की मांग करता है। रंगमंच की सक्रियता ने उन अवरोधों को तोड़ दिया है जिसके लिये कहा जाता था कि संचार माध्यम उसके विकास को खत्म कर देंगे। मीडिया दृश्य श्रव्य माध्यम और मल्टी मीडिया उसे बढ़ने नहीं देगा। विज्ञापन और बाज़ार की आंधियां शब्द माध्यम में और रंगमंच को क्षति पहुंचायेंगे। भारतेन्दु हरिशचन्द जयशंकर प्रसाद जी की चिन्तायें वाजिब थी। लेकिन रंगमंच की सामाजिक संलग्नता और संवेदनशीलता ने रंगमंच को विश्वसनीयता प्रदान की है। लेकिन सवाल अभी भी हमारा पीछा कर रहे हैं, जिनसे रंगकर्मियों को निरन्तर टकराना पड़ेगा।

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