Ek Hi Khwaab Kai Baar Dekha Hai Maine- Abhishek Tripathi
‘ताश के पत्तों पे, लड़ती है कभी-कभी, खेल में मुझसे
और कभी लड़ती भी है ऐसे के बस, खेल रही है मुझसे
और आगोश में नन्हें को लिये....एक ही ख़्वाब कई बार देखा है मैंन’े
ये गीत फ़िल्म ‘किनारा’ का है। शायद कम ही लोगों ने सुना होगा। इस कविता का संगीत राहुल देव बर्मन ने तैयार किया था। गुलज़ार की इस बतकही को आवाज़ दी भूपिन्दर सिंह और हेमा मालिनी ने। एकदम परफ़ेक्ट। संगीतमय बात या बातमय संगीत। भूपिन्दर सिंह को सुनना एक अलग मज़ा देता है। फ़िल्म और इससे इतर भी एक अलहदा अंदाज़ है उनका। उनकी टोनल क्वालिटी ज़रा अलग काम्बिनेशन की है। जो नाक का पुट है आवाज़ में, भारीपान के साथ एकदम बैलेन्स में। न ज़्यादा, न कम। वैसा प्राकृतिक बैलेन्स और किसी में कहाँ है। तो ये तो भगवान की देन है उन्हें। उसे उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति की बेहतरीन क्षमता से सुसज्जित कर दिया। तैयार हो गयी आवाज़, हर किस्म की अदायगी के लिये। उनका नामचीन गाना जो सबने सुना है और हर गायक इसे बड़े गर्व से गाता है-
नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा
मेरी आवाज़ ही पहचान है, ग़र याद रहे
सही मायनों में भूपिन्दर सिंह की आवाज़ ही पहचान है। हाल ही में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया है। उनको नवाजा़ जाना सुगम संगीत की एक पूरी पीढ़ी का, पूरे दौर का सम्मान है। उन्होंने सारे महत्वपूर्ण लोगों के साथ बेहतरीन काम किया है फ़िल्म संगीत के लिये और ग़ज़ल के लिये। संगीतकार जयदेव, मदन मोहन, आर.डी. बर्मन, ख़य्याम, सलिल चैधरी, रवीन्द्र जैन, वनराज भाटिया के कैरियर के बेहद महत्वपूर्ण गानों में भूपिन्दर सिंह के गाये गीत अपनी दमदार हैसियत रखते हैं।
शुरुआती दौर में दिल्ली रेडियो में भूपिन्दर सिंह एक गायक और गिटारिस्ट की तरह काम करते थे। ग़ज़ल की किसी महफ़िल में संगीतकार मदन मोहन ने उनकी ग़ज़ल ‘लगता नहीं है दिल मेरा, उजड़े दयार में’ सुनी और उन्हें अपनी आने वाली फ़िल्म हक़ीक़त के एक गीत के लिये तुरंत कह भी दिया। ये गीत उस ज़माने का बेहद मशहूर गीत रहा-
‘होके मज़बूर मुझे उसने भुलाया होगा।’
ये फ़िल्म चाइना वार पर आधारित थी जिसे चेतन आनन्द ने बनाया था। इस गीत को कैफ़ी आज़मी ने जैसे दिल के खून से लिखा था। कहते हैं कि जब ये गीत रेडियो पर बजता था तो सुनने वालों के दिल डूबने लगते थे। भावनायें दिल से आँखों के रास्ते ऐसी बहती थीं कि लोग फूट-फूट कर रो पड़ते थे।
इस गीत में कई दिलचस्प बाते हैं। पहली तो मैंने बता ही दी है गीत के बारे में। दूसरी यह कि उस ज़माने के स्टार गायकों मोहम्मद रफ़ी, तलत महमूद और मन्ना डे के साथ भूपिन्दर सिंह अपना पहला गीत रिकार्ड कर रहे थे। हाल तो सोचिये ज़रा। फिर उस पर इतने धुरंधर गायकों के होते हुये भी पहला ही अंतरा भूपिन्दर को गाना था। मुखड़े को मोहम्मद रफ़ी शुरू करते हैं, फिर सब साथ गाते हैं और सिर्फ पन्द्रह सेकेण्ड के इंटरल्यूड के बाद सीधे भूपिन्दर सिंह का पार्ट। जनाब उस नौजवान ने गाया और क्या खूब गाया, लाजवाब गाया। ये मदन मोहन की परख थी, भरोसा था भूपिन्दर पर।
एक और दिलचस्प बात। इस गीत में स्क्रीन पर भी भूपिन्दर सिंह गाते हुये नज़र आ रहे हैं। मुखड़े से ही कैमरा उन पर और आवाज़ मोहम्मद रफ़ी की। फिर अंतरा उनकी खुद की आवाज़ में।
आगे चलके इसी भरोसे ने एक और ग़ज़ब की गीत हमें दिया है-
“दिल ढूँढ़ता है, फिर वही, फुरसत के रात दिन
बैठे रहें तसव्वुरे-जाना किये हुये”
इस बार मदन मोहन और गुलज़ार हैं इस गीत में भूपिन्दर के साथ। भूपिन्दर की गायी एक मशहूर ग़ज़ल है निदा फ़ाज़ली की-
“कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता”
एक गिटारिस्ट की हैसियत से भी उन्होंने कई क़माल किये हैं फ़िल्मों में। ‘हरे राम हरे कृष्णा’ फ़िल्म का गाना ‘दम मारो दम’- उसका गिटार तो याद ही होगा। वो भूपी ही हैं। चुरा लिया है तुमने जो दिल को (यादों की बारात), महबूबा-महबूबा (शोले), तुम जो मिल गये हो (हँसते ज़ख़्म) इन सब गानों में गिटार का काम भूपी का ही है। है ना सच में शानदार।
उनकी जीवन संगिनी बनीं बाँग्लादेश की मिताली मुखर्जी, जो खुद भी बेहतरीन गायिका हैं। मैं तो उनका मुरीद हूँ इस ग़ज़ल के लिये-
“देखा है ज़िन्दगी में, हमने ये आज़मा के
भूपिन्दर-मिताली की एक कामयाब ग़ज़ल है जो इस जोड़ी के तसव्वुर से आज भी हर किसी की जुबाँ पे सबसे पहले आती हैं-
“राहों पे नज़र रखना, होठों पे दुआ रखना
आ जाये कोई शायद, दरवाजा़ खुला रखना”
गाते वक़्त इनके चेहरे देखिये, मुस्कुराते हुये पुर सुकून, एक अद्भुत आनन्द की अनुभूति दे जाते हैं। बचपन में हम दूरदर्शन पर इन्हें हमेशा देखते थे। समझ ज़्यादा नहीं थी पर अच्छा बहुत लगता था, सो सुनते थे हमेशा। इन खुशनुमा चेहरों ने कई ग़ज़ल एल्बम हिन्दुस्तानी श्रोताओं के लिये बनाये हैं। भूपिन्दर सिंह के इस महत्वपूर्ण योगदान के लिये अभी राष्ट्रपति ने उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से नवाज़ कर हिन्दुस्तानी ग़ज़ल के रूतबे को बढ़ाया है।
भूपिन्दर-मिताली का गाया एक ग़ज़ब का गीत है जिसे सबको सुनना ही चाहिये।
“कैसे रूठे दिल को बहलाऊँ, कैसे इन ज़ख़्मों को सहलाऊँ
मितवा-मितवा, ना मैं जी पाऊँ ना मर पाऊँ“
इसमें कम्पोजीशन का कमाल ही कमाल है। मैं कहता हूँ कि इसमें हिन्दुस्तानी और पाश्चात्य संगीत की क्लासिकी का इंटेलीजेंट प्रयोग है। मुखड़े में जैसे भैरवी का पूरा आरोह है साथ-साथ उतनी ही सुन्दर शब्द रचना और अदायगी। अंतरे में एफ माइनर के प्रोग्रेशन में सी सस्पेण्डेड फोर्थ और फिर ठीक उसके बाद ई फ्लैट डामिनेन्ट सेवेन्थ की हारमनी का प्रयोग शब्दों में जान, अभिव्यक्ति और चमत्कार पैदा कर देता है। सुनियेगा ज़रूर।
ऐसा भी तो हो, मैं भी कुछ कहूँ, होठों को दबाये क्यूँ रहूँ
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साँसो में है कैसी आग सी, कल भी जली थी आज भी
जल रही आग सी, कैसे इन शोलों को समझाऊँ
अभिषेक त्रिपाठी
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